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भ्रम विधौं सण कौ अंग]
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भावार्थ――यदि हम भी पत्थरो की पूजा करते होते तो युद्ध के गधी के समान सैनिको के खाद्य पदार्थ ढोया करते किंतु मेरे ऊपर तो सतगुरु की कृपा हो गई जिससे मेरे सिर से इन मूर्तियों का निरर्थक बोझा उतर गया।

शब्दार्थ――रोझ=गधा, खच्चर।

जेती देषौं आत्मा, तेता सालिग राम।
साधू प्रतषि देव हैं, नहीं पाथर सूकाम॥५॥

संदर्भ――बहु देवो पासना पर व्यग्य है।

भावार्थ――इस संसार में जितनी जीवात्मायें हैं संख्या मे उतनी ही शालि- ग्राम की मूर्तियाँ हैं अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग देवता की पूजा करता है। कबीरदास जी कहते हैं कि साधू तो स्वयं ही देवता है फिर पत्थरो की पूजा करने से क्या लाभ?

शब्दार्थ――प्रतषि=प्रत्यक्ष।

सेवैं सालिगराम कूँ, मन की भ्रांति न जाइ।
सीतलता सुपनैं नहीं, दिन दिन अधकी लाइ॥६॥

संदर्भ――मन का भ्रम मूर्ति पूजा से दूर नहीं हो सकता है।

भावार्थ――पत्थर की बनी हुई शालिग्राम की मूर्ति को पूजा करने से मन का भ्रम दूर नहीं हो सकता है। ऐसे मूर्ति पूजको को स्वप्न में भी शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती है दिन प्रतिदिन अशान्ति की अग्नि अधिकाधिक तीव्रता से प्रज्वलित होती है।

शब्दार्थ――अधकी=अधिक। लाई=संताप की अग्नि।

सेवैं सालिगराम कूँ, माया सेती हेत।
बोढ़ें काला कापड़ा, नाँव धरावै सेत॥७॥

संदर्भ――कुकर्म करके कोई व्यक्ति धर्माचारी कहे जाने के योग्य है?

भावार्थ――सांरिसाक माया जन्य आकर्षणो के हेतु जो व्यक्ति शालिग्राम की पूजा किया किया करते हैं वे व्यक्ति काला वस्त्र धारण करके भी श्वेत वस्त्र धारी बनना चाहते हैं ढोग रचकर भी धर्माचारी बनना चाहते हैं।

शब्दार्थ――सेत=श्वेत।

जप तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत वेसास।
सूवै सैंवल सेविया यौ, जग चल्या निरास॥८॥