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[कबीर की साखी
 

 

सन्दर्भ――जप, तप आदि पर विश्वास करने वालो को निराशा ही हाथ लगती है।

भावार्थ――जप, तप, तीर्थ, व्रत, एवं विभिन्न देवताओ मे विश्वास करना निरर्थक है, थोथा है। उसमे तो व्यक्ति को उसी प्रकार निराशा हाथ लगती है जिस प्रकार सेंवर के फल मे टोट के मारने से तोते को निराशा ही होती है।

शव्दार्थ――थोथरा=थोथा। सुवै=सुआ, तोता।

विशेष――उपमा अलंकार।

तीरथै तै सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाइ।
कबीर मूल निकंरिया, कौण हलाहल खाइ॥९॥

सन्दर्भ――कबीर के मतानुसार तीर्थं व्रतादि सब व्यर्थं हैं।

भावार्थ――तीर्थं व्रत आदि जगली वेल के समान फैलकर पूरे संसार में छाए हुए हैं किन्तु कबीरदास जी ने इस मूल को जड से हो नष्ट कर दिया है फिर इसके विषाक्त फलो को कौन खाता। अर्थात् संसार इनके विषय प्रभाव से बच गया।

शब्दार्थ――बेलड़ी=बेल।

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाँणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामें जोति पिछाँणि॥१०॥

संदर्भ――सभी तीर्थ स्थान और योग की क्रियायें शरीर मे ही विद्यमान हैं।

भावार्थ――हे मनुष्यो! मन मे ही मथुरा है और दिल मे द्वारिका और इस शरीर को ही पवित्र काशी नगरी समझो जिसमे ब्रह्माण्ड ही इस शरीर रूपी मंदिर का दरवाजा है इसलिए उसमे प्रज्ज्वलित निरंजन पुरुष की ज्योति को पहिचानना ही श्रेयष्कर है।

शब्दार्थ―दसवाँ द्वार=दशम द्वार, ब्रह्म रंध्र।

विशेष――रूपक अलंकार।

कबीर दुनियाँ देहुरै, सीस नवाँवण जाइ।
हिरदा भीतरि हरि वसैं, तूॅ ताही सौं ल्यौ लाइ॥११॥४३६

संदर्भ――हृदय स्थित परमात्मा का ध्यान लगाने से ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।

भावार्थ――कबीरदास जी कहते है इस संसार के सभी व्यक्ति मंदिर में ईश्वर का निवास समभकर वहाँ सिर झुकाने जाते हैं किन्तु प्रभु तो तेरे हृदय के