भीतर ही निवास करते हैं तू उन्ही से अपने प्रभु की लौ लगा उन्ही की प्राप्ति का प्रयत्न कर।
शब्दार्थ――देहुरै=मन्दिर मे। ल्यौ=ध्यान।
२४. भेष कौ अङ्ग
कर सेती माला जपै, हिरदै बहै डंडूल।
पग तौ पाला मैं गिल्या, भाजण लागी सूल॥१॥
सन्दर्भ――सांसारिक मनुष्य माया जाल मे फंसे रहते हैं।
भावार्थ――हे जीवात्मा! तू हाथ से माला जप रहा है इस बात का प्रदर्शन कर रहा है कि मैं ईश्वर भक्त हूँ किन्तु मेरा हृदय माया जाल में फंसा हुआ है। विषय-वासना रूपी पाले मे तेरे पैर गल गये हैं अब यदि इससे भागने का भी प्रयास करेगा तो तेरे पैरो मे काँटे चुभ जायेंगे।
शब्दार्थ――सेती=से। डडूल――माया जाल।
कर पकरै ॲगुरी गिनैं, मन धायै चहुॅ ओर।
जाहि फिराँया हरि मिलैं, सो भया काठ की ठौर॥२॥
सन्दर्भ――ईश्वर की प्राप्ति सांसारिक विषय वासनाओ से मन को अलग कर देने मे होती है।
भावार्थ――ढोगी साधक हाथ मे माला लेकर उँगलियो से उनकी मनकाओ को गिनता जाता है किन्तु मन जिसकी स्थिरता से ही साधना सम्भव है वह चारो ओर दौड रहा है। जिस मन को ससार की ओर से घुमा देने पर अलग कर देने पर ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है वह मन तो काठ के समान जड़ हो गया है।
शब्दार्थ――वोर――ओर। काठ की ठौर=काष्ठवत्।
माला पहरैं मनसुषी, ताथैं कछू न होइ।
मन माला कौं फेरतां, जुग उजियारा सोइ॥३॥
सन्दर्भ――मन की माला को फेरने से ही ईश्वर प्राप्ति संभव है।