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[कबीर के साखी
 

 

भावार्थ――मनुष्य माला को गले मे पहन कर उसे व्यर्थ हो घुमाता रहता है किन्तु उसका मन बर्हिमुखो हो जाता है वह सासारिक विषय वासनाओ मे लिपटा रहता है इस प्रकार की पूजा से उपासना से कोई लाभ नहीं है। यदि वह मन की माला की सच्चे हृदय से फेरे तभी उसका यह लोक जौर परलोक दोनो सुधरेगा।

शव्दार्थ――मनसुषी=एक प्रकार की माला का नाम।

माला पहरैं मनसुषी, बहुतैं फिरैं अचेत।
गाॅगी रोलै बहि गया, हरि सू नाहीं हेत॥४॥

सन्दर्भ――मन पवित्र होने से ही जप तप उपासनादि का फल प्राप्त होता है।

भावार्थ――इस संसार मे बहुत से व्यक्ति मनसुखी माला को पहने अचेतावस्था-अज्ञानावस्था मे घूमा करते हैं किन्तु जिस व्यक्ति का ईश्वर से सच्चा प्रेम नहीं है वह गंगा जैसी पवित्र नदी के पास भी जाकर स्नान नहीं कर पाता वरन् उसके प्रवाह में प्रवाहित हो जाता है। उसका कल्यारण नहीं हो पाता है।

शब्दार्थ――अचेत=अज्ञान। गागी=गंगा के। रोलै=धारा मे। हेत=प्रेम, भक्ति।

कबीर माला काठ की, कहि समझावै तोहि।
मन न फिरावै आपणां, कहा फिरावै मोहि॥५॥

संदर्भ――सच्ची भक्ति तो संसार से चित्त वृत्ति को हटाकर प्रभु मे केन्द्रित करना है।

भावार्थ――काष्ठ की माला, माला घुमाने वाले साषक को समझाती हुई कहती है कि ऐ साधक! तू यदि अपने मन को परमात्मा की ओर उन्मुख नही करता है तो फिर मुझे घुमाने से क्या लाभ? कबीर कहते हैं कि सच्ची उपासना तो मन को प्रभु की ओर लगाना ही है।

शब्दार्थ――आपणा=अपना।

कबीर माला मनकी, और संसारी भेष।
माला पहर्यां हरि मिलै, तौ अरहट के गलि देष॥६॥

संदर्भ――वही माला पहनने से ईश्वर की प्राप्ति होती है?

भावार्थ――कबीरदास जी कहते हैं कि वास्तविक माला तो मन की होनी चाहिए और मालाएं तो सब दिखावा मात्र हैं। यदि माला के पहनने से ही प्रभु