पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/२२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
भेष कौ अंग]
[२१७
 

प्राप्ति सम्भव होती तो रहटको क्यो न प्रभु प्राप्ति हो जाती जिसके गले मे वाल्टियो की माला हमेशा घूमा करती है।

शब्दार्थ――भेष=दिखावा। अरहट=रहट।

मालाँ पहर्याँ कुछ नहीं, रुल्य मूवा इहि भार।
बाहरि ढोल्या हींगलू, भीतरि भरी झँगारि॥७॥

संदर्भ―माला पहनना तब तक व्यर्थं है जब तक मन विषय-वासना से अलग न हो।

भावार्थ――कबीरदास जी कहते हैं कि माला पहनने से कुछ नहीं होता है व्यर्थ मे ही शरीर उसके भार से दवा रहता है। बाहर से तो गेरुआ वस्त्र धारण कर लोग साधुओ का-सा बाना बनाए रहते हैं किन्तु उनके अत करण मे विषय-वासनाएँ भरी रहती हैं।

शब्दार्थ――रुल्य=शरीर। होगलू=गेरू। भंगारि= गन्दगी।

माला पहरयाँ कुछ नहीं, काती मन कै साथि।
जब लगि हरि प्रगटै नहीं, तब लग पड़ता हाथि॥८॥

संदर्भ――माला धारण करने के साथ-साथ परमात्मा का स्मरण करना भी आवश्यक है।

भावार्थ――कबीरदास जी कहते हैं माला पहन लेने से ही कुछ नहीं होना जब तक मन नाना प्रकार के माया जन्य आकर्षणो मे फंसा रहेगा तब तक प्रभु भक्ति से कोई लाभ नही। माला पर हाथ तो तभी तक पड़ता है जब तक ईश्वर का स्वरूप समक्ष प्रकट नहीं हो जाता है और जैसे ही ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है वैसे ही इन बाहरी आडम्बरो से कोई लाभ नही।

शब्दार्थ――कराती=माया जन्य आकर्षण।

माला पहर्याँ कुछ नहीं, गाँठि हिरदा की खोइ।
हरि चरनू चित राखिये, तौ अमरापुर होइ॥६॥

संदर्भ――माला धारण की व्यर्थंता की ओर कबीर का सकेत है।

भावार्थ――माला धारण करने से कोई लाभ नहीं है जब हृदय के भीतर माया, मोह, राग और द्वेष की गाँठ न खोल दी जाये यदि हरि चरणो मे चित्त को लगा रखा जाय तो एक न एक दिन परमात्मा को प्राप्ति अवश्य होगी।

शब्दार्थ――गाँठि=माया जनित रागद्वेष। अमरापुर=स्वगंपुरी।

माला पहरयाँ कुछ नहीं, भगति न आई हाथि।
माथा मुंछ मुंड़ाइ करि, चल्या जगत कै साथि॥१०॥