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[कबीर की साखी
 

 

संदर्भ――माला धारण करने से प्रभु-प्राप्ति संभव नहीं है।

भावार्थ――माला धारण करने से कोई लाभ नही उससे भक्ति की प्राप्ति संभव नहीं है। सिर और मूंछो को मुडवाकर सांसारिक ढोगियों के साथ चलने से कोई लाभ नही, ईश्वर प्राप्ति के लिये तो सच्चे उपासक की भाँति आचरण करना चाहिए।

शब्दार्थ–मुँछ– मूँछ।

सांई सेंती सांच चलि, औरां सू सुध भाइ।
भावै लम्बे केस करि, भावै घुरड़ि मुंड़ाई॥११॥

संदर्भ――एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के साथ सरल व्यवहार करना चाहिए और ईश्वर के साथ भी सत्य आचरण करना चाहिये।

भावार्थ――हे जीव! तू स्वामी (परमात्मा) के साथ सत्य का आचरण कर और साथ ही अन्य प्राणियो के साथ भी तू सरल भाव से आचरण कर और उसके बाद चाहे तू लवे लवे बाल बढा ले और चाहे सिर मुँड़वा ले।

शब्दार्थ――सुधमाह=सीधे भाव से। घुरडि=पूर्ण रूपेण।

केसों कहा बिगाड़िया, जे मूंडै सौ बार।
मन कौ काहे न मूंडिये, जामैं विषय बिकार॥१२॥

संदर्भ――कबीरदास जी सिर मुडाने के पक्ष मे न होकर मन को विषय वासनाओ से अलग करने के पक्ष मे हैं।

भावार्थ――कबीरदास जी कहते हैं कि इन वालो ने तेरा क्या बिगाडा है जो तू इनको बार-बार मुडवाता रहता है। वास्तव मे तू मन को क्यो नही मुडवाता जिसमे नाना प्रकार के सांसारिक विषय वासनाएं भरी हुई हैं?

शव्दार्थ――केसो=वालो ने।

मन मैंवासी मंडि ले, केसौं मूंडै काँइ।
जे कुछ किया सु मन किया, केसों कीया नाँहि॥१३॥

संदर्भ――सिर मुडवाने की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी मन को विषयो से अलग करने की है।

भावार्थ—है ढोगी साधुओ! तू बारम्बार सिर ही क्यो मुडवाया करता है। मनरूषो मदमस्त डाकू को मूड कर क्यो नही स्वच्छ करता जो कुछ भी पाप कर्म किए हैं वे सभी मन ने किए हैं वालो ने कुछ भी नहीं किया है फिर उनको सफाई से क्या लाभ?

शब्दार्थ――मैं वासो=मदमस्त डाकू। कांइ=क्यो।