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भेष कौ अंग]
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पष ले चूड़ी पृथमीं, झूठी कुल की लार।
अलष बिझायौ भेष मैं, वूड़े काली धार॥२१॥

सन्दर्भ――परमात्मा कहीं आडम्बर प्राप्त होता है? वह तो सरल आचारण और व्यवहार से प्राप्त होता है।

भावार्थ――सम्पूर्णं संसार के प्राणी कुल की भूठी परम्पराओ, मर्यादाओ और सम्मान हेतु अहं भाव का प्रदर्शन करते ही करते नष्ट हो गया किन्तु वह सब उसे प्राप्त न हो सका। इस वाह्य भेष-भूषा मे ही लगे रहकर अलक्ष परमात्मा को भुलाकर तू नरक की काली नदी में ही डूब गया।

शब्दार्थ――पष=पक्ष। पृथमी=पृथ्वी।

चतुराई हरि नाँ मिलै, ए बातां की बात।
एक निसप्रेही निरधार का, गाहक गोपी नाथ॥२२॥

शब्दार्थ――ब्रह्म की प्राप्ति चतुराई से न होकर निष्काम भक्ति से होती है।

भावार्थ――यह बात तो निश्चित ही है कि प्रभु की प्राप्ति चतुराई से नही हो पाती है। जो भक्त निष्पृह और निराधार होते हैं प्रभु उन्ही भक्तो को अपनाते हैं।

शब्दार्थ――निसप्रेही=निष्पृह, निष्काम।

नब सत साजे कामनी, तन मन रही सॅजोइ।
पीव कै मनि भावै नहीं, पटम कीयें क्या होइ॥२३॥

सन्दर्भ――वास्तविक भक्ति तो वही है जिससे प्रभु रीझ जाएं। अन्य सब तो आडम्बर है।

भावार्थ――स्त्री यदि बहुत ही मनोयोग से सोलहो श्रृंगार करके अपने प्रिय के समुख जाय और फिर भी वह प्रिय को अच्छी न लगे तो उसकी साज-सज्जा से क्या लाभ? अर्थात् बाह्य वेषभूषा को धारण करने से ही क्या लाभ? जिससे ब्रह्म की प्राप्ति न हो सके या जो बाह्य वेषभूषा प्रभु को अच्छी ही न लगे उसको धारण करने से क्या लाभ? प्रभु को प्रसन्न करने के लिए तो हृदय की तल्लीनता आवश्यक है।

विशेष――कालिदास ने भी कहा है कि――

“प्रियेषु सौभाज्य फलाहि चारुता।”
कुमार सभवम्-पचम सगं।
सुन्दरता वही है जो प्रिय को अच्छी लगे।

शब्दार्थ――नवसत=नव+सात=सोलह। पटम=श्रृंगार सज्जा।