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[कबीर की साखी
 

 

प्रसंग――सद्गुरु के अभाव मे भक्ति नहीं हो सकती है। दूसरो का अनुकरण करके भक्ति मार्ग पर बढने वाला मानव विपत्ति आने पर भक्ति छोड़ देता है।

भावार्थ――दूसरो की देखा देखी जो भक्ति की जाती है उसमे स्थिरता नही होती है, वह अधिक दिन तक नहीं ठहर सकती है। साधना के मार्ग पर आने वाली विपत्तियो से डर कर वह साधक भक्ति को उसी प्रकार छोड़ देता है जिस प्रकार सर्प केंचुली को त्याग देता है।

शब्दार्थ――भगति=भक्ति। कदे=कभी। चढई=चढ़ना। विपति= विपत्ति। छाड़सी=छोड़ देना। केचुली=केंचुल। भवंग=भुवग।

करिए तौ करि, जांणिये सारीषा सू संग।
लीर लीर लोई थई, तऊ न छाड़ै रंग॥३॥

प्रसंग――सद्गुरु की संगति को कोई बिरला ही प्राप्त कर सकता है। सद्गुरु को पहचान है कि उसका भक्ति के रस मे ही ध्यान रहता है।

भावार्थ――सत्सग सदैव समान व्यक्तियों के साथ ही करना चाहिए। लोई को यदि चीर-चीर कर टुकड़े-टुकड़े करके देखा जाए तो भी उसका रंग नही छूटता है। ठीक उसी प्रकार सच्चा भक्त, सद्गुरु कभी अपनी भक्ति नहीं छोड़ता है। उसका भवित रूपो रंग कभी भी नहीं उतरता है।

शब्दार्थ――लीर-लीर=चीर-चीर करके। सारीष=विश्वसनीय सद्गुरु। तऊ=तो भी। थई=थाह ली।

यहु मन दीजै तास कौं, सुठि सेवग भल सोइ।
सिर ऊपरि आरास है, तऊ न दूजा होइ॥४॥

प्रसंग――यह मन ईश्वर के सच्चे भक्त को ही देना चाहिए।

भावार्थ――मन को सच्चे ईश्वर भक्त की ओर ही लगाना चाहिए। अर्थात् सत्गुरु मे पूर्ण आस्था होनी चाहिए। क्योकि सच्चा भक्त सिर पर आरा तक सहन कर लेता है। कोई उसे चीर भी डाले तो भी वह अपने मार्ग से विचलित नही होता है।

शब्दार्थ――सुठि=अच्छा। सेवग=सेवक। तास=उसको।

पांडण टांकि न तौलिए, हाडि न कीजै वेह।
माया राता मांनवी, तिन सूॅ किसा सनेह॥४॥

प्रसंग――सांरिसाक माया में लिप्त मानव से कभी स्नेह नही करना चाहिए।