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संगति कौ अंग]
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भावार्थ――पत्थरो को टाँकी लगा कर नहो तौला जा सकता है और न हड्डी को तोड कर ही देखा जा सकता है। क्योकि उनका रूप सदैव एक ही दिखाई पड़ेगा। वह भीतर और बाहर से एक है उनका मूल्याकन नही किया जा सकता है। उसी प्रकार माया के फन्दे मे फंसे हुए मनुष्य हैं। उनसे किसी प्रकार का स्नेह? अर्थात् उनसे दूर रहना चाहिए।

शव्दार्थ――वेह=विदीर्णं करना। राता=रगा हुआ। मानवो=मनुष्य।

कबीर तासूॅ प्रीति करि, जो निरबाहै ओड़ि।
बांनता बिबधि न राचिये, देषत लागै षोड़ि॥६॥

प्रसंग――प्रेम उसी से करना चाहिए जो आदि से अन्त तक उसका निर्वाह कर सके।

भावार्थ――कबीरदास जी का कथन है कि प्रेम उसी से करना चाहिए जिससे जीवन पर्यन्त निर्वाह हो सके। अनेक स्त्रियो और सम्मति मे अनुरक्त मानव को देखने से ही पाप लगता है।

शव्दार्थ――तास=उससे। प्रीति=प्रेम। निरवाहै=निर्वाह। ओडि=अन्त तक। वनिता=स्त्री।

कबीर तन पषी भया, जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ।
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाई॥७॥

प्रसंग――कुसगति का प्रभाव मानव पर बहुत ही शीघ्र पड़ जाता है।

भावार्थ――कबीरदास जी कहते हैं कि विषय वासनाओ मे अनुरक्त मन, सासारिकता मे लीन रहता है और शरीर रूपी पक्षी उसी मन के साथ उड़ा करता है। जो इच्छा उत्पन्न होता है उसी के अनुसार शरीर कार्य करता है उसो स्थान पर पहुँच जाता है जहाँ मन चाहता है। यह कुसंगति का ही परिणाम है। जैसी संगति होती है वैसा परिणाम भोगना पडता है।

शव्दार्थ――तन=शरीर। पषी=पक्षी।

काजल केरी कोठड़ी, तैसा यहु संसार।
बलिहारी ता दास की, पै सिर निकसणहार॥८॥

प्रसंग――संसार काजल की कोठरी के समान है।

भावार्थ――यह संसार काजल की कोठरी के सदृश है, इसमे माया रूपी काजल सर्वत्र फैला हुआ है। जो भी इस काजल की कोठरी मे प्रवेश करता है, उसके थोड़ा बहुत काजल अवश्य लग जाता है। कबीर दास कहते हैं मैं उस दास की अर्थात् 1