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[कबीर की साखी
 

भक्त की बलि-बलि जाऊँ जो प्रवेश करके उसके अभाव से अछूता निकल जाएं। अर्थात् ससार मे रहकर भी सांसारिक माया से दूर रहे।

शब्दार्थ――कोठडी=कोठरी। यहु=यह। निकसणहार=निकलने वाला।

 

 

२७. असाध कौ अङ्ग

कबीर भेष अतीत का करतूति करै अपराध।
बाहर दीसै साध गति, मांहै महा असाध॥१॥

प्रसंग――वाह्य वेष-भूषा एवं करनी मे साम्य न होने पर वह साधु नहीं असाधु होता है।

भावार्थ――कबीर दास जी कहते हैं वेष तो वैरागी के समान बनाए हुए है और पाप कर्म मे प्रवृत्त है। ऐसा साधु जो केवल वाह्यावरण से ही साधु दृष्टिगत होता है, वह अन्तःकरण से परम असाधु अर्थात् नीच होता है।

शब्दार्थ――अतीत=वैरागी (परे, उस लोक)। भेष=वेष। करतूति =करनी

ऊज्जल देखि न धीजिए, बग ज्यूँ माड़ै ध्यान।
धोरै बैठि चपेट सी, यूॅ लै बूड़े ज्ञान॥२॥

प्रसंग――किसी को उज्ज्वल वेष-भूषा को देखकर उसके उज्ज्वलमना होने का विश्वास नहीं करना चाहिए।

भावार्थ――जिस प्रकार श्वेत रंग का बगुला मछली पकड़ने के लिए ध्यानस्थ रहता है वैसे ही किसी का उज्ज्वल वेप देखकर विश्वास मत करो सम्भव है कोई बग-ध्यानी हो जो अवसर आने पर मछली के समान ही तुम्हे दबोच ले और समस्त ज्ञान तथा विवेक को भी डुवा दे।

शब्दार्थ――न धीजिए=विश्वास न कीजिए। माडें ध्यान=ध्यान करता है। धीरै=निक्ट।

जेता मीठा धोलणां, तेता साध न जांणि।
पहली थाह दिखाइ करि, ऊँडै देमी आंणिं॥३॥५८०॥

प्रसंग――मिष्ट भाषियो को साधु नही समझना चाहिए।