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  दादू,मलूक,जगजीवन,शिवनारायण,दरियद्धो,मीरा,सहजोदयावाई,घनीदास,गरीबदास,केशवदास,तुलसी (साहब) चरनदास,सुन्दरदास आदि ने भारतीय जनता मे समय-समय पर प्रकाश फैलाया। आज इस युग का महापुरूष गाँधी भी उनके सिद्धान्तों से अनुप्राणित प्रतीत होता है । कबीर के विषय मे लिखित इन सन्तो की वानियो से कबीर के व्यक्तित्व का अनुमान बडी सरलता से लग सकता है । अतिशयोक्तियो को छान कर निकाले हुए तथ्यो से कबीर का व्यक्तित्व प्रकाश मे लाया जा सकता है।

कबीर के पश्चात् धर्म और समाज के विषय मे अभिरुचि रखने वाले सभी कवियो और इतिहासकारो ने कबीर की प्रशंसा की है-चाहे वे मुसलमान हो या हिन्दू दोनो जातियो मे उनका आदर था, सम्मान था। उनकी वाणी मे प्रभावित करने की शक्ति थी। उनकी वाणी ने समय, वर्ण वर्ग, जाति और समाज के सभी स्तरो को लांघ कर एक रूप से जनता को प्रभावित किया।

साम्प्रदायिक कवियो का काव्य अतिशयोक्ति एव अतिरजना से पूर्ण होता है। फिर भी उन अतिरजनो के मुल मे तथ्य बीज-रूप मे वर्त्मान अव्श्य रहता है, इसमे कोई सन्देह नही। वरमदास (स० १४७५) कबीर के प्रधान शिष्या थे ।कबीर के पश्चात यही गही पर आसीन हुए ।इनके शब्दो मे कबीर अजर- अम्रर व्यक्ति है। प्रत्येक युग मे एक भिन्न -भिन्न नाम धारण करके अवतार ग्रहण करते है। सतयुग मे सतसुकृत नाम था, श्रेता मे मुनीन्द्र , द्वापर मे करुणा तथा कलियुग मे कबीर। कबीर सभी युगो मे माया रहित होकर विराजमान रहे है-

जुगन जुगन लीन्हा अवतारा । रहौं निरन्तर प्रगद प्रसारा ॥
सतयुग सतसुकृत कह टेरा। त्रेता नाम मुनेन्दहि मेरा ॥
द्वापर मे करुना मय कहाये। कलियुग नाम कबीर रखाये ॥
चारो युग मे चारो नाऊँ । माया रहित रहै तिहि ठाऊँ ॥
जो जाघा पहुँचे नही कोई । सुर नर नागर रहै मुख गोइ ॥

( ग्रन्थ अवनारण प्र० ३२३२)

धर्मदास के अनुसार कबीर एक दिव्य पुरुष के रूप मे दृष्टिगत होते हैं। परन्तु इस उद्धरण की अन्तिम दो पंक्तियोँ विशेष ध्यान देने योग्य है। इसमे ज्ञान होता है कि कबीर माया मोह के पाप से उन्मुक्त थे। "जो जाया पहुँचे नही कोइ" और "सुर नर नाग रहै मुख गोइ" वहाँ पर कबीर "माया रहित रहै तिहि टाऊ" कबीर ने जीवन पर्यन्त माया के बन्धनो से दूर रहने का उपदेश दिया है। उनकी