भावार्थ――बहु-भाषियो को कभी भी साधु नही समझना चाहिए। वे पहल पार जाने योग्य उथला जल दिखा देते हैं और फिर बीच धार मे गहरे पानी मे लाकर डुबा देते हैं।
शब्दार्थ――थाह=पार जाने योग्य, उयला जल। ऊँडै=गहरे पानी मे। जेता-जितना। तेता=उनको।
२८. साध कौ अङ्ग
कबीर संगति साध की, कदे न निरफल होइ।
चंदन होसी बांवना, नींब न कहसी कोइ॥१॥
प्रसंग――साधु की सगंति कभी भी निष्फल नही होती है।
भावार्थ――कबीरदास जी कहते हैं, कि साधु अर्थात् सज्जन व्यक्ति की संगति कभी भी व्यर्थं नही जाती है। साधु संगति से तुम नीम के समान कड़वे से सुशीतलता एव सुगन्धता देने वाले चन्दन बन जाओगे और फिर तुम्हें कोई कड़वा नही कह सकेगा। क्योकि चन्दन के वृक्ष को कोई नीम नहीं कह सकता है।
शब्दार्थ――कदे=कभी। निरफल=निष्फल। बावन=श्रेष्ठ।
कबीर संगति साध की, बेगि करीजै जाइ।
दुरमसि दूरि गॅवाइसो, देसी सुमति बताइ॥२॥
प्रसंग―साधु जनो की संगति शोघ्रता शीघ्र करनी चाहिए।
भावार्थ――कबीर दासजी कहते हैं ‘कि साधु संगति शीघ्र ही करनी चाहिए। उससे दुर्बुद्धि का नाश होता है। तथा सद्बुद्धि की प्राप्ति होती है।
शब्दार्थ――दुरमति=दुर्बुद्धि।
मथुरा जावै द्वारिका, भावै जा जगनाथ।
सांध संगति हरि भगति बिन, कछू न आवै हाथ॥३॥
प्रसंग――तीर्थ स्थलो से अधिक महत्वपूर्ण साधु संगति है।
भावार्थ――कबीर दास का कथन है, कि चाहे मथुरा जाओ, या द्वारिका पुरी जाओ या इच्छा हो तो जगन्नाथ पुरी जाओ। परन्तु साधु संगति और प्रभु भक्ति के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता है।