पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/२४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३०]
[कबीर की साखी
 

 

शब्दार्थ――भावै=भाये=अच्छा लगे,

मेरे संगी दोइ जणां, एक वैष्णों एक रांम।
वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नांम॥४॥

प्रसंग――मुक्ति एवं प्रभु का स्मरण कराने वाले ही साथी है।

भावार्थ――कबीर का कथन है, मेरे साथी केवल दो ही है――एक वैष्णव दूसरा राम अर्थात् प्रभु। राम मुक्ति का प्रदाता है और वैष्णव राम का स्मरण कराता है।

शब्दार्थ――विष्णो=वैष्णव।

कबीर बन बन मैं फिरा, कारिण अपर्णी रांम।
रांम सरीखे जन मिले, तिन सारे सब कांम॥५॥

प्रसंग――हरि भक्त की प्राप्ति से उद्देश्य की पूर्ति हो गई।

भावार्थ――कबीर दास कहते हैं, कि राम की खोज मे मैं वन-वन भटकता रहा। मुझे राम के भक्त मिल गये। जिन्होंने मेरा उद्देश्य सिद्ध कर दिया और प्रभु से मिला दिया।

शब्दार्थ――सारे=पूर्ण किये।

कबीर सोइ दिन भला, जा दिन संत मिलांहि।
अंक भरे भरि भेटिया, पाप सरीरौ जांहि॥६॥

प्रसंग――जिस दिन सत्यसंगति हो, वही दिन सुन्दर है।

भावार्थ――कबीर का कथन है कि वही दिवस श्रेष्ठ एवं सुन्दर है जिस दिन सत दर्शन हो जाए। उनको प्रेम पूर्वक आलिंगन करने से शरीर के सारे पाप दूर हो जाते हैं।

शब्दार्थ――भेटिया——आलिंगन।

कबीर चन्दन का बिड़ा, बैठ्या आक पलास।
आप सरीखे करि लिए, जे होते उन पास॥७॥

प्रसंग――सत्संगति के प्रभाव से दुष्ट व्यक्ति भी सुधर जाते हैं।

भावार्थ――कबीर दास का कथन है चन्दन जैसे सत्पुरुप को आक और पलास जैसे दुष्ट व्यक्तियो ने घेर लिया है। परन्तु उस सत्पुरुष ने उन सबको, अर्थात् दुष्टो को भी अपना जैसा सुगन्धि युक्त बना दिया।

शब्दार्थ-विटा=वृक्ष।

कबीर साई कोट की, पांणी पिवै न कोइ।
जाइ मिलैं जब गंग मैं, तब सब गंगोदिक होइ॥८॥