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[कबीर की साखी
 

 

भावार्थ――यह संसार काजल की कोठरी के समान हैं, और जिसका कोट भी काजल से ही विनिर्मित है अर्थात् मनुष्य निर्मित। कबीर दास कहते हैं, कि मैं उस दास की बलिहारी जाता हूँ जो संसार मे राम का सहारा लेकर माया, मोह से दूर रह जाए।

शव्दार्थ――ओट=सहारा।

भगति हजारी कपड़ा, तामैं मल न समाइ।
साषित काली काँबली, भावै तहाँ बिछाई॥१३॥४९३॥

सन्दर्भ=भक्ति बहुमूल्य वस्त्र के समान है।

भावार्थ――भक्ति वहुमूल्य वस्त्र के समान है। वह मलिनता को सहन नही कर सकती है। उसमे किं चिन्त मात्र भी पाप रूपी मैल नहीं छिप सकता है। दूसरी ओर शक्ति साधना वाले कम्बल जैसे हैं, जिसे जहाँ चाहो बिछा दो।

शब्दार्थ――हजारी कापडा=एक सहस्त्र मूल्य वाला वस्त्र, बहुमूल्य । सापित=शाक्त।

 

 

२९. साध साषीभूत कौं अङ्ग

निरवैरी निहकाँमता, सांई सेती नेह।
विषिया सू न्यारा रहै, संतनि का अंग एह॥१॥

संदर्भ――संतो के लक्षण क्या है?

भावार्थ――किसी से शत्रुता न करना अर्थात् बैर भाव न रखना, प्रत्येक कार्य को बिना फल की इच्छा (निष्काम भाव) के करना। प्रभु के प्रति भक्ति रखना, विषयों के प्रति विशक्ति, यह सत पुरुषो के स्वभाव का महत्वपूर्ण अंग है।

शब्दार्थ――निहकाँमता=निष्काम रहना। साई=स्वामी। सेती=के।

संत न छाड़ै संतई, जो कोटिस मिलैं असन्त।
चॅदन भुवंग वेठिया, तउ सोतलता न तजंत॥२॥

संदर्भ――सन्तो का कर्म निम्नलिखित है।

भावार्थ=कुसंगति मे पडकर भी संतजन अपने गुणो का परित्याग नही करते है, जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष पर सर्प लिपटे रहते हैं तो भी यह अपनी पीतलता का त्याग नहीं करना है।