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साध साषीभूत कौ अंग]
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शब्दार्थ――कोटिक=करोडो। भुवग = सर्प।

कबीर हरि का भांवता, दूरै थैं दीसंत।
तन षीणां मन उनमनां, जग रूठड़ा फिरंत॥३॥

सन्दर्भ――हरि भक्त दूर से ही दृष्टिगत हो जाता है।

भावार्थ――कबीर दास का कथन है कि हरि (राम) का प्यारा दूर से ही दिख जाता है। वह शरीर से क्षीण होता है, मन उन्मनी अवस्था अर्थात् भीतर ही केन्द्रित रहता है और वह संसार से विरक्त रहता है।

शब्दार्थ――भांवता=प्रिय। षीणा=क्षीण। रूठडा=रूठा हुआ। उन्मता =उन्मन।

कबीर हरि का भांवता, झीणां पंजर तास।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मास॥४॥

सन्दर्भ――हरि के प्रिय की काया कृश होती है।

भावार्थ――कबीर दास कहते हैं कि हरि भक्त का शरीर क्षीण होता है। हरि भक्त मे अनुरक्त रहने के कारण उसे रात भर नोंद नहीं आती है। (हरि का जाप किया करता है) उस पर कभी माँस नही चढता है अर्थात् वह शरीर से पुष्ट नहीं होता है।

शब्दार्थ――झीणा=कृश। पंजर=शरीर। तास=उसका।

अणरता सुख सोवणां, रातै नींद न आइ।
ज्यूॅ जल टुटै मंछली, यूॅ बेलत बिहाइ॥५॥

संदर्भ――जिनकी वृति प्रभु मे रमी हुई है वे सुख-निद्रा मे सो नहीं पाते हैं।

भावार्थ――जो व्यक्ति ईश्वर से प्रेम नहीं करता है वह सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करता है पर जो प्रभु मे अनुरक्त उन्हे नींद नहीं आती है। उनकी अवस्था जल के अभाव मे तडपती हुई मछली के समान है, वह प्रभु वियोग मे सदैव तड़पते रहते हैं।

शव्दार्थ――अणरता जो अनुरक्त नहीं है। रार्ते जो अनुरक्त है। बेनत=तडप कर।

जिन्य कुछ जांण्यां नहीं, तिन्ह सुख नींदड़ी बिहाइ।
मैर अबूझी दुझिया, पूरी पड़ी बिलाइ॥६॥

सन्दर्भ――जिन्होने ज्ञानार्जन का प्रयत्न नहीं किया। उन्होने सम्पूर्ण आयु सुख निद्रा मे व्यतीत कर दी।