भावार्थ—जो अज्ञानी है वे सुख की नींद सोते हैं। मुझ अनजाने ने उसे जानने का प्रयत्न किया अर्थात् साधना में प्रवृत्त हुआ तो हरि वियोग की विपत्ति मेरे ऊपर पड़ी।
शब्दार्थ—जिन्य = जिन्होंने। जाण्या = जाना। नीदडी = नीद।
जांण भगत का नित मरण, अण जांणे का राज।
सर अपसर समझै नहीं, पेट भरण सूँ काज॥७॥
सन्दर्भ—ज्ञानी भक्त का नित्य मरण है।
भावार्थ—ज्ञानी का मरण है, क्योंकि वह हरि वियोग की वेदना का अनुभव करता है और अज्ञानियों को आनन्द होता है क्योंकि वे उस वेदना का अनुभव नहीं कर पाते हैं हरि-भक्ति से उनका कोई प्रयोजन नहीं है। सांसारिक आवश्यकता की पूर्ति अर्थात् जीवन की पाशविक वृत्तियों को ही सन्तुष्ट करने में जीवन व्यतीत कर देते हैं।
शब्दार्थ—जाँणा = ज्ञानी। अण जाने = अज्ञानी। राज = आनन्द से। सर अपसर = अवसर।
जिहि घटि जांण बिनाण है, 'तिहिं घटि आवटणं घणा।
पिन पंडै संग्राम है, नित उठि मन सौ झूझणा॥८॥
संदर्भ—जो ज्ञानी है, उसके हृदय में संताप की कमी नहीं है।
भावार्थ—जिसके हृदय में ज्ञान विज्ञान है, अर्थात् जो विवेकी है उसके हृदय में संताप की कमी नहीं, अर्थात् विरह अग्नि सदैव प्रज्ज्वलित रहती है। नित्य ही वह बिना तलवार के अपने मन से युद्ध किया करता है। (जिससे मन विशुद्ध मार्ग की ओर प्रवृत्त न हो।)
शब्दार्थ—जाँण-विनाश = ज्ञान विज्ञान। आवरणा = औटना। धणा कार्याधर। घट = तनवार। झूझणा = युद्ध करना।
राम वियोगी तन विकल, ताहि न चीन्हैं कोइ।
तंबोली के पांन ज्यूँ, दिन दिन पीला होइ॥९॥
सन्दर्भ—राम के वियोगी की वंदना को कोई नहीं जान पाता है।
भावार्य—जो राम वियोगी होता है उसकी वंदना को कोई नहीं जान पाता है। तंबोली के पान से सदृश वह नित्य पीला पड़ता जाता है।
शब्दार्थ—चीन्हैं = पहचानना।
पीलफ दौड़ी सांइयाँ, लोग कहै पिंड रोग।
लांनै लांघना नित करै, राम प्यारे जोग॥१०॥