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साध साषीभूत कौ अंग]
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सन्दर्भ――राम के वियोग के कारण शरीर पीला पड़ गया है।

भावार्थ――साई, अर्थात् हरि के वियोगानुभव के कारण, शरीर नित्य पीला पडता जा रहा है। लोग समझते हैं कि इसे पीलिया हो गया है। परन्तु वह छिप-छिप कर नित्य लंघन करता है जिससे कि प्रियतम के मिलन हो सके।

शब्दार्थ――पीलक=पीलापन। पिड रोग=रक्त हीनता का विकार। छानै=क्षीण।

काम मिलावै राम कूॅ, जे कोई जाँणै राषि।
कबीर बिचारा क्या करै, जाकी सुखदेव बोलै साषि॥११॥

सन्दर्भ――कबीर ने अपने वचनो का समर्थन स्थान-स्थान पर वैष्णवो के पूज्य ऋषियो एवं देवताओ द्वारा कराया है।

भावार्थ――यदि कर्मों को उचित रीति से सम्पन्न किया जाए तो कर्म ही राम से मिला देते हैं*। कबीर ऐसा कहकर कोई मिथ्या तत्व प्रतिपादित नहीं कर रहे हैं? इसमे कबीर का क्या दोष? इस कथन की साक्षी तो स्वयं शुकदेव जी ही दे रहे हैं।

शव्दार्थ――साषि=साक्षी।

काँमणि अंग बिरकत भया, रत भया हरि नाँइ।
साखी गोरखनाथ ज्यूं, अमर भये कलि माँहि॥१२॥

प्रसंग――गुरु गोरखनाथ इन कथन के साक्षी है।

भावार्थ――जो कामिनी से विरक्त हो कर हरि मे अनुरक्त हो गया। वह कलियुग मे अमर हो गया। इसके साक्षी गुरु गोरखनाथ है।

शब्दार्थ――कांमरिण=कामिनी। रत=अनुरक्त।

जदि बिषै पियारी प्रीति सूं, तब अंतरि हरि नांहिं।
जब अंतर हरि जी बसै, तब विषिया सूंचित नांहि॥१३॥

सन्दर्भ――विषय वासनाओ मे अनुरक्त मानव के हृदय में हरि का निवास हो सकता है।

भावार्थ――जब तक मनुष्य को सांसारिक वस्तुओं के प्रति अनुराग है तब तक हृदय मे हरि का निवास असम्भव है। जब हृदय मे हरि का वास हो जाता है, तब चित्त विषयों की ओर नहीं जाता है।

शब्दार्थ――विषै=विषय-वासनाएँ। जदि=यदि। अन्तरि=अन्तर।

जिहि घट मैं संसौ बस, तिहि घटि रांम न जोइ ।
रांम सनेही दास बिचि, तिणां न संचर होइ ||१४||