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३०. साध महिमा कौ अंग

चंदन की कुटकी भली, नां बँबूर की अबरांउं।
वैश्नों की छपरी भली, नां साषत का बड गाउँ॥१॥

सन्दर्भ—वैष्णवों का छप्पर भला है, शाक्तों के बड़े-बड़े ग्राम अच्छे नहीं है।

भावार्थ—चन्दन की लकड़ी का एक मुट्ठा अच्छा है और बबूल का पूरा जंगल अच्छा नही है। इसी प्रकार वैष्णवों की एक कुटिया शाक्तों के बड़े-बड़े गाँवों से श्रेष्ठ है। तात्पर्य यह है कि अच्छी वस्तु का थोड़ी मात्रा में ही प्राप्त होना अच्छा है।

शब्दार्थ—कुटकी = चंदन की लकड़ी का मुट्ठा। बंबूर = बबूल। अबराउँ = जंगल।

पुरपाटण सूबस बसै, आनंद ठांयें ठांई।
रांम सनेही बाहिरा, ऊजँड़ मेरे भाई॥२॥

सन्दर्भ—राम भक्त था राम प्रेमियों से रहित नगर उजाड़ है।

भावार्थ—कबीर की दृष्टि में वह नगर उजाड़ है जिसमें राम के प्रेमी नहीं निवास करते हैं चाहे वह कितने ही सुन्दर ढंग से बसा हुआ नगर हो, और स्थान स्थान पर आनन्द मनाये जा रहे हो।

शब्दार्थ—सूवस = बसा हुआ। बाहिरा = बिना। ऊंजड़ = उजाड़।

जिहि घरि साध न पूजिये, हरि की सेवा नाहि।
ते घर मड़हट सारपे, भूत बसै तिन मांहि॥३॥

सन्दर्भ—साधु की पूजा एवं हरि सेवा आवश्यक है अन्यथा घर श्मशान के समान है।

भावार्थ—जिस घर में साधु का सम्मान और सेवा तथा हरि भक्ति नहीं है। वे घर श्मशान के समान है और वहा भूत प्रेतों का निवास स्थान है अर्थात् वे श्मशान सुत्य शून्य और भयानक है तथा सांसारिक क्लेशों के भूतों का वह खान है।

शब्दार्थ—मढ़हट =मरघट, श्मशान। घरि = घर।