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वाणियो मे अनेक ऐसे कथन हैं। इस लिए कबीर के विषय मे धरमदास को अंतिम दो पंक्तियाँ मान्ह हैं। नाभादास जी ने भक्तमाल मे लिखा है-

(१)

कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षट दरस की|
भक्ति विमुख जो धर्म सो अधरम कर्म गायो|
जोग जग्य ब्रतदान भजन बिनु तुच्छ दिखायो||
हिन्दू तुरक प्रमान रमैनी शब्दी साखी|
पक्षपात नहिं बचन,स्रब ही के हित की भाखी||
अरूढ़ दसा ह्वै जगत पर मुख देखी नाहिन भनी|
कबीर कर्म न राखी नहीं वर्णश्रम ष्ट दरसनी||

(३२७ छप्पय)

(२)

अति ही गंभीर मति सरस कबीर हियो।
लियौ भक्ति भाव जाति पाँति सब टारियै||

(कवित ५१५)

(३)

 बीनै लानौ बानौ, हियै राम मंडरानौ।
कहि कैसे कै बखानौं, वह रीति कछु न्यारियै||

(४)

 उतनोई करै जामै तन निरवाह होय|
भाय गयी श्रौर बात भक्ति लागी प्यारियै||

(कवित ५१३)

इन उद्धरणों से ज्ञात होता है कि (१) कबीर ने चार वर्ण चार आश्रम छ: दर्शन किसी की भी "आनि कानि" नही रक्खी ।केवल भक्ति को ही हद किया। भक्ति से विमुख धर्मो को अधर्म कहा। सतभक्ति से रहित तप, योग, दान व्रतादि तुच्छ वताए। आयं और अनायं, हिन्दू और मुसलमान को सिद्धान्त की वातों का ज्ञान कराया।(२) उनकी मति गम्भीर और अन्त:करण भक्ति से सरस था । वह भजन भाव मे संलग्न रहते थे और जाति पाति एवं वर्णाश्रम मे आस्या नहीं रखते थे ।(३) वे कपड़ा वुनने का उधम करते थे। यधपि बाह्य रूप से ताना-वाना का कायं करते थे, पर अन्त:करण से ब्रह्म मे ही लीन रहते थे।(४) उधम तो