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३१. मधि कौ अंग

कबीर मधि अंग जेको रहै, तौ तिरत न लागै बार।
दुहु दुहु अंग सूॅ लालि करि, डूबत है संसार॥१॥

सन्दर्भ――मध्यम मार्ग पर चलने वाला शीघ्र ही भवनागर को पार कर लेता है।

भावार्थ――कबीरदास जी का कथन है कि जीवन मे जो मध्यम मार्ग का अनुसरण करता है वह इस संसार सागर को शीघ्र ही पार कर लेता है उसे देर नही लगती है परन्तु जो दो अति विरोधी मतो को स्वीकार करता है वह संघर्ष मे पड कर नष्ट हो जाता है।

शब्दार्थ――मधि=मध्य मार्ग, समन्वयो मार्ग। तिरत=तरने में।

कबीर दुविधा दूर करि, एक अंग ह्वै लागि।
यहु सीतल वहु तपति है, दोऊ कहिये आगि॥२॥

सन्दर्भ――दुविधा मे सताप है, उसे दूर कर दो।

भावार्थ――कबीरदास का कथन है कि दुविधा अर्थात् सशय को दूर कर दो और मध्यम मार्ग का अनुसरण करो। क्योकि दोनो अतिवादी मनो मे कौन श्रेयस्कर है और कौन अश्रेयस्कर है? यह दुविधा है दुविधा मे सताप है। दो विरोधी मत यदि मैं एक यदि अतिशीतल है और दूसरा अत्यन्त उत्तप्त मान लिए जाए तो भी दोनो ही अग्नि की भांति जलाने वाले हैं। अतः मध्यम मार्ग को ही अपनाना चाहिए।

शब्दार्थ――तीतल=शीतल।

अनल अकांसां घर किया, मधि निरंतर बास।
बसुधा, व्यौम विरकत रहे, बिनठा हर बिसवास॥३॥

सन्दर्भ――जीवात्मामुक्त हो गई।

भावार्थ――आत्मा ईश्वर ज्ञान के आलोक से प्रकाशित होकर ब्रह्म रन्ध्र मे निवास करने लगी वह आकाश और पृथ्वी दोनो से विरक्त होकर उन्मन अवस्था मे पहुँच गई।

शब्दार्थ――अनल=अग्नि। अकासा=आकाश। मधि=मध्य। व्यौम=आकाश। विरकत=विरक्त। विनठा=विनष्ट। निसवास=विश्वास

क० सा० फा०――१६