पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१५)

केवल उतना करते थे जितने से उनकी जीविका चल 'जाय । इसके सिवाय उनका चित पूर्ण रूपेणा ब्रह्म मे ही लगा रहता था । (५) कबीर अपने सिद्धान्त का समर्थन करना जानते थे ।सिकन्दर द्वारा उत्पीड़ित और पाखंडियो द्वारा अपमानित होने पर भी वे अपने सिद्धान्तों से अडिग रहे । उन्हें सिद्धान्तों से विचलित करने के अनेक उपाय हुए पर वे सभी विफल हो गए । भक्तमाल को इन पक्तियो से कबीर के व्यक्तित्व पर अच्छा प्रभाव पड़ता है ।नाभादास के इस कथन मे कहीं भी कोई अतिशयोक्ति नही उपलब्ध होती है । कबीर के सभी स्वाभाविक गुणो का परिचय इन उद्धरणों से प्राप्त होता है।

अकबर के समय मे अवुल फजल अल्लामी ने आइन-ए-अकबरी की रचना की। इस ग्रंथ मे कबीर के लिए "मुवाहिद" अर्थात "एकता प्रेमी" शब्द का प्रयोग हुआ है । इस ग्रन्थ मे कबीर के विषय मे लेखक ने दो बार उल्लेख किया है। १२६ पुष्ठ पर उनका परिचय देते हुए लेखक का कथन है कि "कबीर मुवाहिद यहॉं विश्राम करते हैं और आज तक उनके कारण और कृत्यो के सम्बन्व मे अनेक विश्वस्त जनश्रुतियॉ कही जाती हैं।वे हिन्दू और मुसलमान दोनो के द्वारा अपने उदार सिद्धान्तों और पवित्र जीवन के कारण पूज्य थे।"पृष्ठ १७१ पर लेखक का कथन है कि"कोई कहते हैं कि रतनपुर (सूत्रा अवध)मे कबीर की समाधि है जो ब्राह्म क्य का मण्डन करते थे । आध्यात्मिक दृष्टि का द्वार उनके सामने अशतः खुला था। उन्होने अपने समय के सिद्धान्तों का भी प्रतिकार कर दिया था।"आइन-ए-अकबरी के इन कथनो से ज्ञात होता है कि कबीर समदृष्टिवान व्यक्ति थे। वे दोनो ही वर्गो मे पूज्य थे और उद्धार सिद्धान्तों के पोषक और प्रचारक थे।

कबिर के गुरु भाई पीपा और रैदास ने प्राय:एक से ही शब्दो मे कबीर का यशोगान करते हुए कहा है:-

जाकै ईद बकरीद नित गठरे बध करै मानिये सेप सहीद पीरां।
बापि वैसी करी पूत ऐसी धरी नाव नवखंड परसिध कबीरा ॥

-पोपा

जाकॅ ईद बकरीदि कुल गठरे बधि करहि,
मानियहि सेल सहीद पीरा ॥
बापि वैसी करी पूत सरी तिहुरे,
लोक परसिधा कबीरा ॥

(रैदास)