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उपदेश कौ अंग]
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कली काल ततकाल है, बुरा करो जिनि कोइ। अन बावैं लौहा दांहिषै, बोवै सु लुणतां होइ॥२॥

संदर्भ――कलियुग मे कर्मफल तत्काल प्राप्त होता है।

भावार्थ――कलिकाल मे किए हुए कर्मों का फल तत्काल ही प्राप्त हो जाता है अतः कबीर प्राणियो को उपदेश देते हैं कि कोई कु कर्म न करो। जिस प्रकार किसान बाँयें हाथ मे फसल के पौधों को पकड़ता है और दाहिने हाथ में अन्न काटने की हँसिया पकडता है और जो बोता है वही काटता है उसी प्रकार जैसे कर्म करोगे वैसा फल मिलेगा।

शव्दार्थ――अन=अन्न। लोहा=हँसिया।

कबीर संसा जीव मैं, कोई न कहै समझाइ।
बिधि बिधि बांणीं बोलता, सो कत गया बिलाइ॥३॥

संदर्भ――जीव की स्थिति क्षणिक है।

भावार्थ――कबीरदास जी का कथन है कि जीव मे भ्रम है उसे कोई समझा कर नही बता सकता है। जीव के अस्तित्व के विषय मे विभिन्न आशकाएँ उत्पन्न हो जाती है। जो जीव मृत्यु से पूर्वं अनेक प्रकार की वारिणयाँ बोलता था वह कहीं विलीन हो गया?

शव्दार्थ――संसा=सशय। विलाइ=नष्ट हो गया।

कबीर संसा दूरि करि, जाँमण मरण भरंभ।
पञ्चतत्त तत्तहि मिलै, सुरति समाना मंन॥४॥

सन्दर्भ――संशय को दूर कर दो।

भावार्थ――कबीरदास कहते हैं, कि हे मन संशय को दूर कर दो। जन्म-मरण का भ्रम इसी कारण है। सशय को दूर करने से जीवन मुक्त हो जायेगा तथा पंच तत्वो से विनिर्मित यह नश्वर शरीर उन्ही तत्वो मे मिल जायेगा और तब भन सुरति अवस्था मे पहुँच कर ईश्वर से साक्षात्कार करेगा।

शब्दार्थ――जाँमण मरण=जन्म-मरण।

ग्रिही तौ च्यंता घणीं, बैरागी तौ भीष।
दुहु कात्यां बिचि जीव है, दौ हुनै संतौ सीष॥५॥

सन्दर्भ――साधु-शिक्षा चिन्ताओ को नष्ट कर सकती है।

भावार्थ――गृहस्थ एव विरक्त दोनो को ही चिन्ता है प्रथम को गृहस्थी की तथा द्वितीय को भिक्षा की। अतः गृहस्थ एवं विरक्त (सन्यासी) दोनो अवस्थाओ मे