जीव उसी प्रकार नष्ट होता है जैसे कैंची के दोनों फलकों के बीच में फंसा हुआ वस्त्र। सन्तों की शिक्षा इस संशय को दूर कर देती है।
शब्दार्थ—च्यता = चिंता। भीष = भिक्षा। हनैं = नष्ट करे।
वैरागी बिरकत भला, गिरहीं चित्त उदार।
दुहूँ चूकां रीता पड़ै, ताकू वार न पार॥६॥
सन्दर्भ—गृहस्थ को उदार एवं सन्यासी को विरक्त होना चाहिए।
भावार्थ—वैरागी को विरक्त एवं गृहस्थ का उदार होना चाहिए। यदि ये दोनों अपने इन प्रकृत गुणों को त्याग देते हैं, तो सम्पूर्ण साधन व्यर्थ जाते हैं और इतना अनर्थ होगा कि उसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं होगा।
शब्दार्थ—विरकत = विरक्त। गिरही = गृहस्थ।
जैसी उपजै पेड़ सूं, तसी निबहै ओरि।
पैका पैका जोड़तां, जुड़िसी लाप करोड़॥७॥
सन्दर्भ—मार्ग पर सतत प्रयत्न करके चलने पर उद्देश्य की पूर्ति हो जाती है।
भावार्थ—पेड़ से जैसे सुन्दर फल गिरता है यदि उसे अन्त तक उसी रूप में सुरक्षित रखा जाए, अर्थात् आत्मा ब्रह्म से जैसे अलग हुआ वैसा अन्त तक बना रहे। परन्तु उसके लिए सतत प्रयत्न की आवश्यक्ता है जैसे एक-एक पैसा जोड़ने पर लाखों एकत्र हो जाते है उसी प्रकार साधना के मार्ग पर अग्रसर होकर धीरे-धीरे चलकर भी उद्देश्य की पूर्ति सम्भव है।
शब्दार्थ—निवहै ओरि = अन्त तक निर्वाह। पैका = पैसा। जुडिसी = जुड़ जाना।
कबीर हरि के नांव सूं, प्रीति रहै इकतारा।
तौ मुख तैं मोती झड़ैं, हीरे रहे अंत न पार॥८॥
सन्दर्भ—उपदेश के मूल में अनवरत भक्ति की अपेक्षा।
भावार्थ—कबीर दास का कथन है कि यदि साधक का हरि नाम में निरन्तर एक समान प्रेम बना है, तो उसके वचनों से मोती झड़ने लगेंगे, और हीरा अर्थात् उपदेश का कोई अन्त न होगा।
शब्दार्थ—इकतार = एक समान लगातार। नाँव = नाम।
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोई।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होई॥९॥