पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/२६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५८]
[कबीर की साखी
 


भावार्थ—जिस प्रकार बासी दूध फट कर खराब हो जाता है और फिर वह अपने मौलिक रूप में नहीं परिवर्तित होता है, उसी प्रकार मेरा मन सम्बन्धियों से विच्छिन्न हो गया है।

शब्दार्थ—बाइक बुरै = बुरी बातों से। सगाई = सम्बन्ध। साक = साख। निवास = तीन दिन का।

चंदन भागां गुण करैं, जैसे चोली पंन।
दोइ जन भागां नां मिलैं, मुकताहल अरु मंन॥३॥

सन्दर्भ—चन्दन, मोती और मन अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं।

भावार्थ—चन्दन टुकडे-टुकड़े होने पर भी अपने गुण को नहीं छोड़ता है, परन्तु मन और मोती टूट जाने पर पुनः नहीं मिलते हैं।

शब्दार्थ—भागा = टूटा हुआ।

पासि विनंठा कपड़ा, कदे सुरांग न होइ।
कबीर त्याग्या ग्यांन करि, कनक कामनी दोइ॥४॥

सन्दर्भ—विरक्त मन कभी भी पुनः नहीं मिल पाता है।

भावार्थ—यथा फटा हुआ कपड़ा पर रंग नहीं चढ़ता है, उसी प्रकार विरक्त मन माया के रंग में नहीं रंगा जा सकता। कबीर ने ज्ञान पूर्वक कनक और कामिनी दोनों का परित्याग कर दिया।

शब्दार्थ—विनठा = विनष्ट हुआ। सुराग = अच्छा रंग।

चित चेवनि मैं गरक ह्वै, चेत्य न देखैं संत
कत कत की सालि पाड़िये, गल वल सहर अनंत॥५॥

संदर्भ—हे मन! शश चेतन ब्रह्म में अनुरक्त क्यों नहीं होते?

भावार्थ—हे मन! ब्रह्म में लीन होकर चेतन में अनुरक्त होकर जीवन को सफल क्यों नहीं करते? इस संसार में किस-किस की कठिनाइयों में भाग लोगे।

शब्दार्थ—कत-कत = किसकी-किनकी।

जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ।
खेवटिया की नांव ज्यूं, घणें मिलैंगे आइ॥६॥

संदर्भ—प्राणी अपने प्रति सचेत रहों।

भावार्थ—हे प्राणी! जो जाता है उसे जाने दे तू पहले अपनी दशा की ओर ध्यान दें। यदि तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो केवट की नाव की भाँति जाने कितने आकर तुमसे मिलेंगे।

शब्दार्थ—दस = दशा।