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विर्कताई कौ अंग]
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नीर पिलावत क्या फिरै , सायर घर घर बारि।
जो त्रिषावन्त होइगा, तो पीवेगा भष्म् मारि॥७॥

सन्दर्भ—हे प्राणी! ईश्वर भक्ति का प्यासा स्वयं भक्ति रुपी जल का पान करेगा।

भावर्थ—हे साधक! तु ईश्वर भक्ति का जल प्रत्येक को क्यों पिला रहा है। जो भक्ति का प्यासा होगा वह उस जल का पान स्वयं कर लेगा। भक्ति जल का सागर अर्थात् ईश्वर सबके हृदय में विद्यमान है।

शब्दार्थ— नीर = जल।

सत गंठी कोपीन है, साघ न मानै संक।
रांम अमलि माता रहै , गिणौं इन्द्र कौ रंक॥८॥

संदर्भ—ब्रह्म के रंग में रंगा हुआ प्राणी इन्द्र की भी अवहेलना करता है।

भावार्थ—फटी, गाँठ लगी हुई कौपीन पहने हुए ब्रह्म के रंग में और राम की प्रेम की मदिरा में मस्त प्राणी इन्द्र को रंक मानता है।

शब्दार्थ—गिणौं = गिनता है।

दावै दाझण होत है, निरदावै निसंक।
जे नर निरदवै रहैं, ते गिणैं इंद्र् रंक॥९॥

संदर्भ—संसार का परित्याग किया हुआ, प्राणी, इंद्र को भी रंक के बराबर मानता है।

भावार्थ—अधिकार प्रदर्शन करने से जलन होता है, अधिकार प्रदर्शन न करने वाला निसंक रहता है। ऐसा प्राणी इन्द्र को भी रकवत मानता है।

शब्दार्थ—दावै = अधिकार।

कबीर सब जग हंढिया, मंदिल कंघि चढ़ाइ।
हरि बिन अपनां को नही, देखे ठोकि बजाइ॥१०॥५९४॥

सन्दर्भ—हरि के बिना अपना कोइ नहीं है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते है कि इस अधम पंच तत्वों से विनिर्मित शरीर का भार ढ़ोते हुए, समस्त संसार को देखा, परन्तु यह भली प्रकार देख लिया है कि हरि के बिना इस संसार में अपना कोई नहीं है।

शब्दार्थ—हंढिया = घुम लिया।