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३८. सम्रथाई कौ अङ्ग

नां कुछ किया न करि सक्या, नां करणें जोग सरीर।
जे कुछ किया सु हरि किया, ताथैं भया कबीर कबीर॥१॥

सन्दर्भ—हरि जगत-नियन्ता है‌।

भावार्थ—न मैंने कुछ किया, न करने के योग्य हूँ, न कर सका हूँ। जो कुछ किया है वह हरि ने किया है। उन्हीं की कृपा से कबीर कबीर हो गए।

शब्दार्थ—सरीर = शरीर।

कबीर किया कछु न होत है, अनकीया सब होइ।
जे किया कुछ होत है, तौ करता और कोइ॥२॥

सन्दर्भ—हरि जगत नियन्ता है।

भावार्थ—कबीरदास कहते हैं कि जो मैं चाहता हूँ वह नहीं होता है और जो नहीं करना चाहता वह पूर्ण हो जाता है। यदि मेरे करने से कुछ होता तो कर्त्ता में ही होता, परन्तु में कर्त्ता नहीं हूँ, करता तो ब्रह्म है।

शब्दार्थ—करता = कर्त्ता।

जिसहि न कोई तिसहि तूँ, जिस तूँ तिस सब कोइ।
दरिगह तेरी सांईयाँ, नांम हरु मन होइ॥३॥

सन्दर्भजिसका कोई नहीं है, उसका ईश्वर है।

भावार्थ—जिसका कोई नही है, उसका तू है और जिसका तू समर्थक है उसका सब कोई है। हे स्वामी! जिस पर तू कृपालू है, वह हल्का होते हुए भी भारी बन जाता है।

शब्दार्थ—जिसहि = जिसका। तिसहि = उसका।

एक खड़े ही लहैं, और खड़ा विलगाएइ।
साई मेरा सुलपनां, सूतां देव जगाइ॥४॥

सन्दर्भ—ईश्वर सबको आवश्यकतानुसार देता है।

भावार्थ—कुछ व्यक्तियों को प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। पड़े-पड़े उन्हें मिल जाता है और प्रतीक्षा करते-करते व्याकुल हो जाते हैं। मेरा ईश्वर सदा दया करने वाला है, वह सोते को जगाकर देता है।

शब्दार्थ—सुलपनां = सुसक्षण युक्त। रावण कृष्ण यात्रा है, यह गोले को जगाकर देता है। सत्यार्थ- सुमयुत ।