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[कबीर
 

प्रकार की माया से सर्वथा अतीत है। जो उसको पिंड और ब्रह्माण्ड से अतीत बतलाता है, वही वास्तव में कबीर के मतानुसार परम तत्व को जानता है।

अलंकार—(१) सभग पद यमक—गुण...निरगुण।
(२) गूढोक्ति—वार वहियै।
(३) अनुप्रास—अजर अमर अलख।
(४) सम्बन्धातिशयोक्ति—अलख जाई।
(५) पुनरुक्ति प्रकाश—घटि घटि।
(६) विरोधाभास—नातौं समाई।

टिप्पणी—(I) गुण में गुण है। तुलना कीजिए—

ज्ञान कहै अज्ञान बिनु तम विन कहै प्रकास।
निर्गुन कहै सगुण विनु सो गुरु तुलसीदास॥

(II) इस पद में कबीर ने निर्गुण-राम-सम्बन्धी धारणा स्पष्टतः व्यक्त हुई है।

(III) इसमें निर्गुण और सगुण में तांत्त्विक भेद का निषेध किया गया है। निर्गुण को अभावात्मक अथवा शून्य मानने का भी खण्डन है। इस प्रकार इनके राम के भक्ति के आलम्बन होने में कोई व्याघात उत्पन्न नही होता है।

(१८१)

पषा पषी कै पेषणै, सब जगत भुलानां॥
निरपष होइ हरि भजै, सो सोध सयांनां॥टेक॥
ज्यूं पर सूं पर बंधिया, यूं बधे सब लोई।
जाकै आत्म द्रिष्टि है, साचा जन सोई॥
एक एक जिनि जांणियाँ, तिनहीं सच पाया।
प्रेमी प्रीति ल्यौं लींन मन, ते बहुरि न आया॥
पूरे की पूरी द्रिष्टि, पूरा करि देखै।
कहै कबीर कछू समुझि न परई, ता कछू बात अलेखै

शब्दार्थ—पषा पषी = पक्ष, विपक्ष, तेरा, मेरा। सर, खर, गधा। मूर्ख लोई—लोग। सच = सत्य।

सन्दर्भ—कबीर कहते हैं कि वह परम तत्व अखण्ड और अनिर्वचनीय है।

भावार्थ—यह संसार परम तत्व को लेकर अपने पक्ष एव मत के आग्रह में पड़ा हुआ भ्रमित हो रहा है अर्थात् सब अपनी-अपनी ढपली पर अपना-अपना राग बजा रहे हैं और भ्रम में पड़े हुए भटक रहे हैं। जो व्यक्ति पूर्वाग्रह से रहित होकर-पक्ष-विपक्ष एवं मत मतान्तर अथवा मेरे-तेरे-की भावना से परे होकर भगवान का भजन करता है, वहीं सन्त साधु है अथवा उसी व्यक्ति को साधु और सच्चा ज्ञानी समझना चाहिए।

जिस प्रकार एक गधा दूसरे गधे से बंधा रहता है और एक गधा दूसरे को और गधा