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ग्रन्थावली]
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चाहे जिधर की ओर ले जाता है, उसी प्रकार संसार के लोग मूर्ख बने हुए एक दूसरे से बंधे हुए हैं और एक दूसरे की देखा देखी चाहे जिस मत एवं वाद की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। जो व्यक्ति आत्मा का दर्शन करता है अथवा प्राणी मात्र को आत्म रूप समझता है, वही वास्तव में सच्चा भक्त है। जिसने उस एक परम तत्व को अद्वैत रूप में समझा है, उसी ने सत्य का साक्षात्कार किया है। जिस साधक का मन प्रभु के प्रेम में लवलीन रहता है, उसका पुनरागमन नहीं होता है अर्थात् उसकी मोक्ष हो जाती है। ऐसी आप्तकाम एवं आत्मज्ञानी स्वयं पूर्ण होता है और पूर्ण ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। कबीर कहते हैं कि इतना विचार-विनिमय करने के बाद भी परम तत्व का रहस्य कुछ समझ में नहीं आता है। वह सर्वथा अलक्ष्य एवं अगम्य है।

अलंकार—(I) वृत्यानुप्रास—पषा पषी पेषणे, सो साध सयाना, पूरे की पूरी पूरा।
(ii) उदाहरण—ज्यूँ....लोई।
(iii) यमक—एक-एक।
(iv) अतिशयोक्ति—कहै—अलेख।

विशेष—(I) ज्यूँ, लोई। तुलना करें।

ऐसी गति संसार की, ज्यों गाडर का ठाटा।
एक पड़ा जेहि खाड में, सबै जाहि तेहि बाट।(कबीर)

(ii) निरपष होइ ....पयाना। तुलना करें—

कोउ कह सत्य झूठ कह कोऊ जुगल प्रबल कोउ मानै।
तुलसीदास परिहरै तीन भ्रम सो आपन पहिचानै।

(गोस्वामी तुलसीदास)

(iii) एक-एक पाया—तुलना करे—

"धर्म की रसात्मक अनुभूति का नाम भक्ति है। धर्म है ब्रह्म के सत्स्वरूप की व्यक्त प्रवृत्ति जिसकी असीमता का आभास अखिल-विश्व-स्थिति में मिलता है।"

(iv) पूरे की देखे—जो आत्मस्वरूप को जानता है, वह स्वयं को ब्रह्म मानता है। जो स्वयं को ब्रह्म मानता है वह अद्वैत दर्शन करता है। जो अद्वैत दर्शन करता है, वह प्राणी मात्र को ब्रह्म रूप समझता है।

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देखत ब्रह्म समान सब माहीं।—तुलसीदास

(v) प्रेम-प्रीति...आया—तुलना करें—

प्रेम पंथ जो पहुँचै पारा। बहुरि न मिलै आइ एहि छारा।—जायसी

(v) कबीर अद्वैतवादी भक्त के रूप में दिखाई देते हैं। गोस्वामी तुलसीदास प्रभृति भक्तों की भक्ति-पद्धति भी यही है। उच्चावस्था पर ज्ञान और भक्ति का भेद समाप्त हो जाता है। श्रीमद्भागवत् की प्रार्थना 'जन्माद्यस्य' में व्यास ने जिस अवस्था