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[कबीर
 

उसी प्रकार मन को पक्का करके व्यक्ति को दुःख में स्वस्थ चित्र बनाए रखना चाहिए और अपनी दसों इन्द्रियों एवं ग्यारहवे मन को एकतान होकर भगवान में लगा देना चाहिए। परन्तु इसके विपरीत वह तो अपने बारह अंगों की पुष्टि लगा रहता है और चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है। फलतः वह गर्भ-वास करता हुआ सदैव आवागमन के चक्कर में पड़ा रहता है। जो व्यक्ति मैं ओर 'तू' के भाव को त्याग देता है कुमार्ग (प्रवृत्ति मार्ग) को त्याग देता है। चातुवर्ण्य की उपेक्षा कर देता है, वह इस भव-सागर में नहीं डूबता है और तैरकर पार लाघ जाता है। संसार की माया- मोह एवं विषय वासनाओं से असम्पृक्त रहता हुआ वह जीव मुक्तावस्था को प्राप्त होजाता है, वह निर्गुण एव गुणातीत ब्रह्म के साथ एकाकार होजाता है। वह भगवान में तन्मय होकर राम के प्रेम में रंग जाता है और उसका आवागमन समाप्त होजाता है तथा उसको परम सुख की प्राप्ति हो जाती है। कबीरदास कहते हैं कि ऐसे सिद्ध जीव को उत्साह (सुख) और शोक प्रभावित नहीं करते हैं। वह स्वयं कर्त्ता ईश्वर बन जाता है।

अलंकार—(i) परिकराकुर—राम।
(ii) छेकानुप्रास—एकादसी एकतार।
(iii) रुपक—राम रंग।
(iv) उदाहरण—होइ अरोगिं... फिरे।
(v) अनुप्रास—राम रग्र राचै।

विशेष—(i) गुरु की महिमा का प्रतिपादन है।

(ii) राम की भक्ति का प्रतिपादन है।
(iii) निर्गुण-सगुण के अभेद का प्रतिपादन है।
(iv) 'एकादशी' अद्वैत (निवृत्ति) का एवं द्वादसी द्वैतभाव (प्रवृत्ति) का प्रतीक है। कबीर अद्वैत को सुख शान्ति कारक मानते हैं।
(v) धापै। तुलना करें—

जाकी कृपा लवलेष तें मतिमंद तुलसीदास हूँ।
पायो परम विश्राम राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।—गोस्वामी तुलसीदास

(vi) एकादशी इकतार करे—समस्त ११ वृत्तियों को प्रभु में केन्द्रित कर दे। ग्यारह वृत्तियाँ है—आँख, कान, नाक, त्वचा, हाथ, पाँव, गुदा, लिंग, मुख नया मन।

(vii) द्वादशी भ्रम—शरीर के १२ प्रमुख अंग हैं—शिर, नेत्र, कर्ण, प्राण, मुख, हाथ, पाँव, नाक, कंठ, त्वचा, गुदा, शिश्न।

(viii) ज्युँ सुख......करैं—तुलना करें स्थित प्रज्ञ के इन लक्षणों से—

सुख दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि

श्रीमद्भगवद्गीता २/ ३८