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ग्रन्थावली]
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कबहुँ क हौं यहि रहनि रहौंगो।
रघुनाथ-कृपालु कृपा तें सत-सुभाव गहौंगो।

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परिहरि देह-स्रनित चिंता, दुःख-सुख समबुद्धि सहौंगो।
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अविचल हरि भक्ति लहौंगो।

विनयपत्रिका, गोस्वामी तुलसीदास

महारामायण में 'रस भक्त' सन्तो का स्वभाव इस प्रकार बताया गया है—

शान्त, समान मनसश्च सुशीलयुक्त,
स्तोषक्षमागुण दयामृजु बुद्धि युक्तः।
विज्ञान ज्ञान विरति परमार्थवेत्ता,
निर्धामकोऽ भय मन सच रामभक्त।

(१८४)

तेरा जन एक आध है कोई।
काम क्रोध अरु लोभ विवर्जित, हरिपद चीन्हैं सोई॥टेक॥
राजस ताँमस सातिग तीन्यूँ, ये सब मेरी माया।
चौथे पद कौं जे जन चीन्हैं, तिनहिं परम पद पाया॥
असतुति निंद्या आसा छाँड़ै, तजै माँन अभिमानाँ।
लोहा कंचन समि करि देखै, ते मूरति भगवानाँ॥
च्यंतै तौ माधौ च्यंतामणि, हरिपद रमैं उदासा।
त्रिस्ना अरु अभिमांन रहित है, कहै कबीर सो दासा॥

शब्दार्थ—विवर्जित = रहित। चौथा पद = मोक्ष। चार पुरुषार्थ धर्म अर्थ काम तथा मोक्ष। प्रथम तीन-तीन गुणों द्वारा आबद्ध हैं। मोक्ष सबसे विवर्जित है। पद का अर्थ 'सायुज्य' भी लिया जा सकता है। अभिप्रेत वही मोक्ष पद है।

संदर्भ—कबीरदास भगवद्भक्त के लक्षणों का वर्णन करते हैं।

भावार्थ—हे प्रभु! कोई एक-आध व्यक्ति ही तेरा वास्तविक भक्त होता है। जो काम, क्रोध और लोभ से रहित होता है, वही भगवान के स्वरूप को पहिचानता है। रजोगुण, तमोगुण और सतोगुण—ये तीनों ही तेरी माया के स्वरूप हैं। जो व्यक्ति इन तीनों के परे चौथे पद मोक्ष (अथवा तुरीयावस्था) को जानता है वही परमपद का अधिकारी बनता है। जो स्तुति, निंदा एवं आशा को छोड़ देता है, मानापमान का अभिमान नहीं रखता है तथा जो लोहा और स्वर्ण को समान दृष्टि से देखता है (अर्थात् लोभ के परे हो जाता है) वह स्वयं ईश्वर रूप ही होता है। ऐसा व्यक्ति यदि किसी का चिन्तन करता है, तो केवल समस्त चिन्ताओं को मिटाने वाले चिन्तामणि रूप भगवान का ही चिंतन करता है और वह संसार के विषयों के प्रति उदास रह कर भगवान के चरणारविन्दों में ही अनुरक्त रहता है। कबीर कहते