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ग्रन्थावली]
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अपने उद्धार का समान अवसर प्राप्त हो सकता है। यही कारण है कि नीच कुल जुलाहा में उत्पन्न होने पर भी भगवान के सेवक कबीर का उद्धार हो गया।

अलंकार—(i) रूपकातिशयोक्ति—दीपक।
(ii) रूपक—सुर नर पतगा।

विशेष—(i) पद का मुख्य भाव यह है कि—

जाति पाँति पूछै ना कोई। हरि को भजै सो हरि को होई।

(ii) कबीर अन्यत्र कह चुके हैं—

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड़त।

(१८६)

जब थै आतम तत बिचारा।
तब निरबैर भया सबहिन थै, कांम क्रोध गहि डारा॥टेक॥
व्यापक ब्रह्म सबनि मैं एकै को पंडित को जोगी।
रांणां राव कवन सूं कहिये, कवन बैद को रोगी।
इनमैं आप आप सबहिन मैं, आप आपसू खेलै॥
नांनां भांति घड़े सब भांडे, रूप धरे धरि मेलै।
सोचि बिचारि सबै जग देख्या, निरगुण कोई न बतावै॥
कहै कबीर गुंणी अरु पंडित, मिलि लीला जस गावै।

शब्दार्थ—रंक निर्धन।

सन्दर्भ—कबीरदास ब्रह्म की अनिवर्चनीयता का वर्णन करते है।

भावार्थ—जब से मैंने आत्म-तत्त्व का चिन्तन आरम्भ किया है, तब से सबके प्रति मेरा विरोध भाव समाप्त हो गया है अथवा यह कहिए कि मेरे हृदय में सबके प्रति मैत्री भाव प्रस्फुटित हो गया है, और मैंने काम एवं क्रोध को पकड़ कर निकाल दिया है। विश्व में व्याप्त ब्रह्म सबमें एक ही है। फिर तात्त्विक दृष्टि से कौन पंडित है और कौन योगी है? किसे राणा कहे, किससे राव कहे, किससे वैद्य कहे और किसको रोगी बताएँ? ये सब अन्तर ऊपरी और मिथ्या है। इन सबमें वही ब्रह्म तत्त्व है और शेष सब में भी वही है। वह आत्मा-आत्मा से खेलता है अर्थात् वही खिलाड़ी है और वही लीला है। ईश्वर ने अनेक जीव रूपी वर्त्तन बनाकर रखे हैं, उन्हें विभिन्न रूप देकर उसने यहाँ रख दिया है। परन्तु इन सबमें एक ही तत्व है, केवल आकार मात्र का भेद है। मैंने खूब सोच-विचार कर सम्पूर्ण जगत देख लिया और अनेक से उस परम तत्त्व के बारे में पूछा है, परन्तु उस अव्यक्त निर्गुण तत्व को ठीक तरह से कोई भी नहीं बता पाया है। (क्योंकि वह अगम्य एव अनिर्वचनीय है)। कबीर कहते हैं कि ज्ञानी और पंडित सब मिलकर उसकी लीला का यशोगान करते है।

अलंकार—(i) वक्रोक्ति—को पंडित....रोगी।
(ii) सम्बन्धातिशयोक्ति—कोई न बतावै।