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ग्रन्थावली]
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तू जैसे ही उस पर अपना फंदा डालती है, वैसे ही वह उस फंदे को तोड़ डालता है। अथवा इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है। शरण में है। माया जैसे ही उसको प्रभावित करना चाहती है, वैसे ही राम की कृपा से उसका प्रभाव तुरन्त ही समाप्त हो जाता है।

अलंकार—(i) छेकानुप्रास—चतुर चिकारे।
(ii) पुनरुक्ति प्रकाश—चुणि चुणि।
(iii) रूपकातिशयोक्ति—चिकारे (अपने आप को श्रेष्ठ बनने वाले ज्ञानी)।
(iv) पदमैत्री—करता हरता।
(v) मानवीकरण—माया को सम्बोधन किया गया है।

विशेष—(i) अन्य समस्त साधनों की अपेक्षा भक्ति को श्रेष्ठ वताया गया है।

(ii) शाक्त के प्रति विरोध प्रकट है। कबीर कहते हैं कि शाक्त की क्या करें? उसकी तो तू सर्वस्व ही है। शाक्त तो आग्रह पूर्वक माया में लिप्त होता है।

(iii) हरि भगतन की चेरी—तुलना कीजिए—

व्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड।
सो दासी रघुवीर कै समुझै मिथ्या सोपि।
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि।
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि वर्ग जानह सब कोऊ।
पुनि रघुवीराहि भगति पियारी नाया खलु नर्तकी विचारी।
भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया।
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई।

(रामचरित्र मानस, गोस्वामी तुलसीदास)

(१८८)

जग सूं प्रोति न कीजिये, समझि मन मेरा।
स्वाद हेत लपटाइए, को निकसै सूरा॥टेक॥
एक कनक अरु कामनीं, जग मैं दोइ फंदा।
इनपै जौ न बेंधावई, ताका मैं वंदा॥
देह घर इन माहि वास, कहु कैसे छूटै।
सीव भये ते ऊबरे, जीवन ते लूटे॥
एक एक सूं मिलि रह्या, तिनही सचुपाया।
प्रेम मगन लै लीन मन, सो बहुरि न आया॥