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[कबीर
 


जहै कबीर निहचल भया, निरभै पद पाया।
ससा ता दिन का गया, सतगुर समझाया॥

शब्दार्थ—वदा = दास, सेवक। सीव = शिव, आनन्द तत्व।

संदर्भ—कबीर कहते है कि संसार में लिप्त रहने वाले की मुक्ति सम्भव है।

भावार्थ—हे मेरे मन! तुम समझ लो जगत के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। सांसारिक विषयों के स्वाद में लिप्त होने पर जो माया के बन्धन से छूट सके, ऐसा कौन सा शूरवीर है। अर्थात् ऐसा कोई भी शूरवीर नहीं है। संसार में माया के दो फंदे है—स्वर्ण और नारी। जो इन बन्धनों में नहीं बंधता है (वहीं पूज्यनीय है) उसका सेवक (दास) होने को मैं तैयार हूँ। देह धारण करते ही मन का वास इनमें हो जाता है अर्थात् जन्म के साथ ही जीव संसारी बन जाता है। फिर बताओं, वह इनसे क्यों कर छूट सकता है? केवल माया के बन्धन से बचते है, जो शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा में प्रतिष्ठित होकर शिव रूप हो जाते हैं, और वे ही जीवन का सच्चा आनन्द प्राप्त करते है। जो एक परम तत्व में तन्मय हो जाते हैं, वे ही सच्चे सुख-शान्ति को प्राप्त करते है। जिनका मन भगवान के प्रेम में लवलीन रहता है, उनका संसार में पुनरागमन नहीं होता है। कबीरदास कहते हैं कि भगवान के प्रेम में लिप्त व्यक्तियों का मन स्थिर हो जाता है और वे अभय पद को प्राप्त करते हैं। जिस दिन उनको सद्गुरु उपदेश देते है उसी दिन उसके समस्त संशय समाप्त हो जाते है। और वे निर्मल बुद्धि को प्राप्त करते है।

अलकार—(i) वक्रोक्ति—को निकसै सूरा।
(ii) गूढोक्ति—कहु कैसे छूटै।
(iii) यमक—एक-एक।
(iv) चपलातिशयोक्ति—ससा—समझाया।

विशेष—तुलना कीजिए—

ईश्वर अस जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।
सो माया बस भयउ गोसाई। बँध्यों कीर मरकट की नाई।
जड़ चेतनहि ग्रन्थि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनाई।
तब ते जीव भयउ संसारी छूट न ग्रन्थि न होइ सुखारी।

(गोस्वामी तुलसीदास)

(१८९)

रांम मोहि सतगुर मिलै अनेक कलानिधि, परम तत सुखदाई।
कांम अगनि नत जरत रही है, हरि रसि छिरकि बुझाई॥टेक॥
दरस परस ते दुरमति नासी, दोन रटनि ल्यौं आई।
पाषड़ भरम कपाट खोलि के, अनभै कथा सुनाई॥
यहु संसार गंभीर अधिक जल, को गहि लावै तीरा।
नाव जिहाज सेवइया साधू, उत्तरे दास कबीरा॥