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ग्रन्थावली]
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शब्दार्थ—छिटकि = छिड़क कर, सिंचित करके। अनभै = अनुभव।

सन्दर्भ—कबीर संतों की महिमा बताते हैं।

भावार्थ—हे भगवान! मुझको सद्गुरु मिल गये हैं और उनकी कृपा से मुझे अनेक कलाओं के निधान एवं सुखदायक परम तत्व का ज्ञान प्राप्त हो गया है। मेरा शरीर काम की अग्नि में जल रहा था। सद्गुरु ने भक्ति का रस छिड़क कर उसकी तपन को बुझा दिया। उनके दर्शन एवं चरण-स्पर्श से मेरी दुर्बुद्धि का नाश हो गया (अर्थात् मेरी बुद्धि ठीक ठिकाने आ गई)। अब मैं दीनता पूर्वक अर्थात् अहंकार से रहित होकर भगवन्नाम स्मरण में लौ लगाए हुए हैं। सद्गुरु ने मेरे हृदय लगे हुए भ्रम और पाषण के किवाड़ खोल दिए हैं तथा अपनी अनुभूति जन्य राम की लीला सुनाई है अथवा अभय प्रदान करने के लिए उन्होंने मुझको भागवत कथा का श्रवण कराया है। यह संसार रूपी सागर अत्यन्त गहरा है। उस सागर में डूबते हुए मुझको पकड़ कर उनके अतिरिक्त किनारे पर ओर कौन ला सकता था? अर्थात् उस जल में डूबने से बचाकर मुझे किनारे पर लाने वाला सद्गुरु के अतिरिक्त और कौन हो सकता है? राम-नाम रूपी जहाज एवं साधु रूपी केवट के सहारे से ही यह भक्त कबीर भवसागर के पार उत्तर सका है।

अलंकार—(i) रूपक—काम अगिनि हरि रस, पाषड़ भरम कपाट, संसार जल, नाव जहाज, खेवइया, साधु पदमैत्री-दरस परस।
(iii) वक्रोक्ति—को तीरा।

विशेष—(i) गुरु एवं सत्सग की महिमा का वर्णन है। तुलना कीजिए—

बिनु सत्संग विवेक न होई। राम कृपा बिन सुलभ कि सोई।

—गोस्वामी तुलसीदास

(१९०)

दिन दहु चहु कै कारणै, जैसै सैबल फूले।
झूठी सूं प्रीति लगाइ करि, साचे कू भूले॥टेक॥
जो रस गा सो परहर्या, बिड़राता प्यारे।
आसति कहूं न देखिहूं बिन नांव तुम्हारे॥
सांची सगाई रांम की, सुनि आतम मेरे।
नरकि पड़े नर बापुड़े, गाहक जम तेरे॥
हस उड्या चित चालिया, सगपन कछू नांहीं।
माटीं सूं माटी मेलि करि, पीछै अनखांही॥
कहै कबीर जग अँधला, कोई जन सारा।
जिनि हरि मरम न जांणिया, तिनि किया पसारा॥

शब्दार्थ—परहरया = छोड़ दिया। बिड़राता = इधर-उधर करना। बापुड़े = बेचारे। चालिया हट गया। पसारा = व्यर्थ का फैलावा (प्रपंच)।

सन्दर्भ—कबीर संसार की निस्सारता की ओर संकेत करते हैं।