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[कबीर
 

 

(vi) उल्लेख — कृपालु, दयालु, दामोदर भगत वदन ।

विशेष – (1) 'दैन्य' की मार्मिक व्यंजना है । 'दैत्य' भक्तो का बहुत बडा बल है ।

( 11 ) 'दामोदर' जैसे सगुण सम्बोधन का प्रयोग सगुण-निर्गुण के अभेद की ओर संकेत करता है । इससे कवीर सगुण भक्त कवियो की पंक्ति मे बैठे हुए दिखाई देने लगते हैं ।

( १६२ )

राम राइ कासनि करों पुकारा,
ऐसे तुम्ह साहिब जाननिहारा ॥ टेक ॥

इद्री सवल निबल मै साधौ, बहुत करै बरियाई ।
लै धरि जाहि तहाँ दुख पइये, बुधि बल कछू न बसाई ॥
मैं बपरौ का अलप सूढ मति, कहा भयो जे लूटे ।
मुनि जन सती सिध अरु साधिक, तेऊ न आये छूटे ॥
जोगी जती तपी सन्यासी, अह निसि खोजे काया ।
मैं मेरी करि बहुत बिगते, विषै वाघ जग खाया ॥
ऐकत छांड़ि जांहि घर घरनीं, तिन भी बहुत उपाया ।
कहै कबीर कछू समझि न परई, विषम तुम्हारी माया ॥

शब्दार्थ –वरियाई = हठधर्मिता, हठधर्मी, बरजोरी, जबरदस्ती । वापुरी = बेचारा विगूने = नष्ट हो गये । विषम = कठिन, जो आसानी से समझ मे न आ सके । ऐकत - अकेली । विप = विषय |

संदर्भ- कवीर दैन्य को अभिव्यक्ति करते हैं ।

भावार्थ – कबीरदान कहते हैं कि हे राजा राम ! जब आप जैसा मेरे बारे मे सब कुछ जानने वाला है, तब में अन्य किसको अपनी पुकार सुनाऊँ, किम के सन्मुख अपनी व्यथा निवेदन करूँ ? हे माधव ! मेरी इन्द्रियाँ बहुत बलवान हैं, मैं (मेरा मन ) निर्दल है । ये इन्द्रियाँ मेरे साथ बहुत जबरदस्ती करती है । ये इन्द्रियाँ मुझको खींचकर जहाँ कहीं भी ले जाती है, वहाँ मुझको केवल दुख ही मिलता हे | मै नव कुठ जानता - समझता हूँ, परन्तु इनके आगे मेरे बुद्धि-विवेक यक्ति हो जाते है और में विवश होकर इनके विषयों को ओर खिचा हुआ चला जाता हैं । नन्द्रियों के फ ने ब े-बने मुनि यती, सिद्ध, सावक आदि भी नही बच पाए तब मुझे अज्ञानी, निबुद्धि व्यक्ति को चलाई ही क्या है ? यदि में इनके द्वारा लूटा जाता है तो इसमें मेरा क्या दोष है ? योगी, यती, तपस्वी और सत्याम धारण करने वाले दिन अपने परीरस्य ब्रह्म की खोज में लगे रहते हैं अथवा शरीर या उपाय करते रहते है | मंगेश के नवकर में नगार न मालूम हो गये। नगर समारोह पर पानी (पत्नी) सेट कर जाते हैं, दिने है। पर