पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/२९२

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अवधू नादे श्र्यद गगन गाजै, सबद अनाहद बोलै । अंतरि गति नही देखै नेडा,दूंढ्त बन बन डोलै॥ टेक॥ सालिगरांम तजौ सिव पूजौ, सिर ब्रहा का काटौं। सायर फोडी नीर मुकलाऊँ, कुँवा सिला दे पाटौं॥ चंद सुर दोइ तूबा करिहू, चित चेतनि की डांडी। सुष्मन तती बाजण लागी, इहि बिधि त्रिष्णां षांडी। परम तत आधारी मेरे, सिव नगरी घर मेरा। कालहि षंडू मीच बिह्ंहू, बहुरि न करिहूँ फेरा ॥ जपौ न जाप हतौं नही गूगल, पुस्तक ले न प्रढांऊं। हैं कबीर परंम पद पाया, नहीं आंऊं नहीं जाऊं ॥

शब्दार्थ-व्यद=विन्दु,शरीर । नादै=शब्द होता है। नेडा=निकट,पास। विखडित=छोटे-छोटे टुकडे करना। हुनता=ह्विष्य के रुप मे अग्नि मे डालना। नेड=पास। सायर=तालाब। कुँवा=सहसार ।

संदर्भ-कबीर कायायोग द्वारा मोक्ष प्राप्त करने की बात कहते हैं । भावार्थ-हे अवधूत् (नाथ पथी सिद्ध योगी)। इस शरीर रूपी आकाश मे शब्द गरज रहा है,और इस प्रकार अनहद नाद की व्वनि हो रही है। परन्तु जो अन्तर्मुखि नही है अर्थात् जो पास मे ही होने वाले शब्द को अपने भीतर नही देखते हैं, वे अज्ञान बना उसको ढूँढते हुए वन-वन मारे फिरते हैं। मैं वाह्याचार के प्रतीक शालिग्राम को त्याग करके परम तत्व के प्रतीक शिवजी का ध्यान करता हूँ। मेरी द्र्ष्टि मैं ब्रह्मा का भी सिर कट गाया है,अर्थात् ब्राह्मा का भी अस्तित्व मिट गया है। मैं मूलाधार-चक्र् के सीमिन सागर की सीमाओ को तोडकर उसके आनन्द रूप जल को विषयवासनाओ से मुक्त कर दूँंगा और सह्स्त्रार को खेचरी मुद्रा रूपी शिला से ढक दूँगा,जिससे उससे निस्सृत अमृत रूपी जल व्यर्थ न बह जाए। अनहद नाद सुनने के लिए चन्द्र-सूर्य के दो तूम्बे तथा चित्त मे प्रतिविम्बित चेतन को उस वीणा की डण्डी बनाऊँगा। इस प्रकार सुषुम्ना की बीणा बजने लगेगी और उस वीणा से प्रकट अनहद नाद द्वारा मैं तृष्णा को नष्ट कर दूँगा। वह परमतत्व ब्रह्मा ही मेरा सहारा है और शिव की नगरी मे मेरा घर है। अब मैं काल को नस्ट (टुकडे-टुकडे) कर दूँगा और मृत्यु को पराजित कर दूँंगा। मै न जप करता हूँ, न गुगाल आदि के द्वारा हवन ही करता हूँ और न वेद-शास्त्रो का पठन-पाठन ही करता हूँ। कबीर कह्ते है की मुक्भको परमपद (मोक्श्) की प्राति हो गई है और आवागमन से मेरा छुटकारा होगया है। अलंकार-(१) रूपक- व्यद गगन ,सुषमन तती, चद सूर तूंबा, चित चेतनि की डाडी। (२) पुनरुक्ति प्रकाश- बन वन।