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पाठकों के प्रति

कबीर की कथा अकथ है। उनका साहित्य अथाह है। प्रस्तुत पुस्तक इसी अथाह की थाह लेने का एक विनम्र प्रयास है।

कबीरदास की रचनाओं को लेकर कई ग्रन्थों का संपादन किया गया है। डा॰ श्यामसुन्दरदास द्वारा संपादित 'कबीर ग्रन्थावली' में हमको कबीर दास के काव्य का सर्वाधिक प्रामाणिक स्वरूप प्राप्त होता है। प्रस्तुत पुस्तक को लिखते समय उक्त 'कबीर ग्रन्थावली' को ही आधार माना गया है।

कबीरदास और कबीर साहित्य को लेकर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और आगे भी लिखा जाएगा। उनकी ग्रन्थावली पर टीकाएँ, 'सजीवन भाष्य' आदि कई ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। सबमें कबीर के काव्य को समझने-समझाने का प्रयत्न किया गया है। इनमें प्रत्येक का अपना निजी महत्व है।

कबीर के काव्य पर लिखी गई अधिकांश टीकाओं में प्रायः छन्दों के भावार्थ ही दिए गए हैं। अप्रचलित शब्दों तथा दुरूह पदावली को या तो छोड़ दिया गया है अथवा भावार्थ लिखकर विषय को चलता कर दिया गया है। इससे न तो पूरे छन्द की संगति ही बैठती है और न उसका अर्थ ही स्पष्ट होता है। ऐसी स्थिति मे जिज्ञासु पाठक की संतुष्टि नहीं हो पाती है और कबीर का काव्य कठिन, दुरूह, नीरस एवं अटपटा कह दिया जाता है।

मेरी धारणा है कि कबीर को जीवन और जगत का व्यापक अनुभव था। उनकी आध्यात्मिक अनुभूति अत्यन्त गहरी थी। अनुभूतिजन्य पारलौकिक ज्ञान को देश-काल द्वारा आबद्ध लौकिक भाषा में व्यक्त करना यदि असम्भव नहीं, तो दुष्कर अवश्य है। इसी कारण विश्व-चेतना प्रसूत ज्ञान को जब वैयक्तिक चेतनापरक मन ग्रहण करता है, तो उसमें रहस्यात्मकता का समावेश स्वभावतः हो जाता है। फलतः अभिव्यक्ति भी रहस्यात्मक हो जाती है, और बौद्धिकता की कसौटी पर कसने पर वह प्रायः अपूर्ण ही प्रतीत होती है। कबीर का काव्य बहुत कुछ इसी प्रकार का है। उनके काव्य को समझने के लिए हृदय की आँखें आवश्यक हैं। उनका काव्य बुद्धि-विलास की वस्तु न होकर ध्यान और अनुभव का विषय है। कबीर क्या कहना चाहते हैं—इस