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ग्रन्थावली ] [ ६१५
द्वारा आत्म-स्वरूप का साक्षात्कार होता है | जीव के शरीर मे वासना रूपी अग्नि रहती है और जीव का मूल निवास-स्थान आत्मानन्द रूपी जल है | कबीर कहते हैं कि हे जीव, तू चेत जा और आत्मानन्द के जल से वासना की अग्नि को बुझा दे | अलकार- ( I ) भेदकातिशयोक्ति - भाव - निराल | ( II ) पदमैत्री - व्यथै बदै सुणै कथें | ( III ) रूपकातिशयोक्ति - अग्नि, जल |
विशेष - (I) कबीर कायायोग द्वारा अमृत-पान की विधि तो बताते हैं, परन्तु उनके मतानुसार कायायोग की साधना पर्याप्त नही है | ज्ञान और भक्ति का योगदान अनिवार्य है | इस प्रकार वह भक्ति को ही साध्य मानते हैं और ज्ञानी भक्त ठहरते हैं | (II) इस पद मे भी कबीर ने यही कहा है कि - पर उपदेस कुसल बहुतेरे | जे आचरहिं ते नर न घनेरे | तथा - सूघे मन सूघे वचन सूधी सब करतूति | रघुवर सूधी सकल बिधि, रघुबर प्रेम प्रसुति। एव- निर्मल मन जन सो मोहि पावा | मोहि कपट छल जिद्र न भावा | (गोस्वामी तुलसीदास)
( २०२ )
ऐसी रे अवधू की वांणीं, ऊपरि कूवटा तलि भरि पांणी || टेक || जब लग गगन जोति नही पलटै, अविनासी सू चित नहीं चिहूटै । । जब लग भवर गुफा नही जानै, तौ मेरा मन कैसै मानै | जब लग त्रिकुटी संधि न जांनै, ससिहर कै घरि सूर न आनै || जब लग नाभि कवल नही सोधै, तौ हीरै हीरा कैसै बेधै | सोलह कला संपूरण छाजा, अनहद कै घरि बाजै बाजा || सुषमन कै घरि भया अनंदा, उलटि कवल भेटे गोव्यदा | मन पवन जब परचा भया, ज्यू नाले रांषी रस मइया || कहै कबीर घटि लेहु विचारी, औघट घाट सींचि ले क्यरी ||
शब्दार्थ - कूवरा = कूप , कुआँ | गगन = शून्य | जोति = ज्योतिस्वरुप ब्रह्म- रन्ध्र | त्रिकुती = दोनो भौहो के बीच का स्थान, आँख नाक और मस्तिष्क का सन्धि-स्थल | ससिहर = चन्द्रमा, पिंगला नाडी | सूर = सूर्य अथवा इडा नाडी | नाभिकवल = नाभि मे स्थित मणिपूरक चक्त्र पर चिन्तन करने वाला साधक इच्छाओ का स्वामी होजाता है | कह्ते है कि वह साधक अपनी इच्छाओ