पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३०१

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६९६ ] [ कबीर के अनुसार अन्य शरीर मे प्रवेश कर सकता है । उस साधक को स्वर्ण-निर्माण, की सामथ्र्य और गुप्तधन की दृष्टि भी प्राप्त होजाती है।

 सन्दर्भ—इस पद मे ह्र्ठयोग के साधक अवघूत का कथन है । कुण्डलिनी से ब्रह्रारन्ध्र तक पहुँचने की फ्रव्त्रिया का वर्णन है । 
 भावार्थ—ऊपर सहलार का कूप है और नीचे रहने वाली कुण्डलिनी इसका पानी भरती है । जक तक सह्स्न्नार रुपी गगन मे शुद्धात्मा की ज्योति प्रति-फलित होकर साधक को दिखाई नही देती तब तक अविनशी ब्रह्रा के प्रति उसका मन अनुरव्त नही होता है । 
    कबीरदास अपने आपको साधक मानकर कहते है कि जब तक मुव्भे ब्रहारन्ध्र का ज्ञान प्राप्त न हो, तब तक भला मुव्भे ( अथवा किसी साधक को ) किस प्रकार संतोप प्राप्त हो सकता है ? जब तक साधक त्रिकुटी की सधि से परिचित होकर सहस्त्रार स्थित चन्द्र और मूलाघार स्थित सूर्य को पास -पास नही लाता है - पिगला और इडा नाडियो के मध्य समन्वय स्थापित नही करता है, तब तक वह शुद्ध चित रुपी हीरे द्वारा शुद्धात्मा रुपी हीरे को कैसे वेध सकता है ? अभिप्रेत भाव यह है कि आज्ञा-चक मे स्थित त्रिकुटी का ज्ञान प्राप्त होजाने पर इडा और पिगला का अन्तर समाप्त हो जाता है तथा मणिपूरक चक पर चिन्तन करने पर ही ब्रह्रा की प्राप्ति सम्भव होती है । नोलह कला से युक्त चन्द्र जहाँ सहस्त्रार पर सुशोभित रहता है, वही अनाहत का वाघ भी बजाता है । भाव यह हे कि ब्रह्रारन्ध्र वाले सह्स्त्रदल कमल मे ब्रह्रा का निवास है । सिद्धि प्राप्त कर लेने पर योगो को वही पर अनाहदनाद ( The Voice of the silence) मुनाई पडता है । सिद्धि मिलने पर ही सुपुम्ना मे आनन्द उत्पन्न्  होता है तथा सह्न्नार के उलटे कमल मे गोविन्द को प्राप्त करता है । नाघन्न द्वारा जब मन और प्राण वायु मिल जाते है, तब मन और परमात्त्मा हुए जल मे मिलकर एक मेल होजाता है । कबीरदास कहते है कि इस प्रकार अपने शरीर के भीतर ही सब कुछ सम्भत्त्लो तथा सहयार के घाट-रहित स्थान मे मोक्ष की क्यारी को आनन्दामृत से सीच लो । 
      अलंकार-(१)अमनति—ऐस़ीवाणी ।
            (२)रुपके—नवर गुफा,नाभि कमन, हीरै गन, हीरै पवन,
               ओघट घाट क्यारी ।
            (३)विरोधानाम की व्यजना—ओघट घाट । 
            (४)यमक—हीरै हीरा । 
            (५)उदाहरण—                  
   विशेष—(१)कबीरदास ने ह्ठयोग की प्रक्रिया को बढे ही