भावार्थ - मन की साधना के द्वारा ही मन मे व्याप्त भ्रम समाप्त हो गया है तथा जीव अपने सहस्त्र आनन्द रूप को प्राप्त करके परमात्मा के रूप मे क्रीडा करने लगा है अर्थात " मैं -- जीव और "तू" ब्रहा एक हो गए हैं --- पथक नही रह गए हैं । यह विश्वास धढ हो गया है कि 'मैं' और 'तू' -- जीव और ब्रहा अथवा 'मैं' और 'मैं नही' -- ये दो नही है तथा मायारहित वह अखण्ड परम तत्व ही समस्त अन्त करणो मे तथा सर्वत्र व्याप्त है । जब से इस मन ने उस मन को जान लिया है अर्थात ध्यष्टि-जीव ने समष्टि-जीव का साक्षात्कार कर लिया अर्थात मन योग की 'उन्मनि' अवसथा को प्राप्त हो गया है , तव से जीव रूप-रेखा तथा आकारादि की मर्यादाओ के ऊपर उठकर उस मायातीत अवस्था मे तन्मय हो गया है । अब शरीर उस चेतन मे समा गया है और चेतन का प्रकाश सम्पूर्ण शरीर मे व्याप्त हो गया है। इस निर्भय परम तत्व के साक्षात्कार की अवस्था मे व्यष्टि-चेतन उस परम चेतन मे समाहित हो गया है। कबीर कहते है कि मन आत्म-लीन होकर असण्ड परमात्मा-रूप और हरि मे तन्मय हो गया है। यही मेरी सिढा-वस्था है।
अलंकार - (१) विरोधाभास की व्यजना -- मन का भ्रम भागा , मैं तै नाही । (२) रूपक -- सहज रूप हरि । (३) पदमंत्री - सकल अकल , इनमन उनमन , तन मन मन तन । (४) सभग पद यमक -- इन मन उन मन (५) वृत्यानुप्रास -- मन मन माहैं मन माना । विशेष -- (१) अद्तावस्था का वर्णन है । (२) विश्व चेतना स्वरूप राम की प्राप्ति ही जीवन का परम लक्ष्य है। गीताकार ने धमी को लक्ष्य करते हुए कहा हे कि -- ' यन्प्राप्य न निवतंन्ते तद्वाम परम मम अथवा सवंधर्मान परित्यज्य मामेक शरण व्रज । ' (३) सहज रूप लागा-भावुक कवि इस अदतावस्था का वर्णन काध्योचित रसनिक्त डाली मे करते आए है। यथा ---- राधिका , कान्ह को ध्यान धरै , तय फान्ह हूँ , राधिका के गुन गाव । त्यो अमुया चरमे वरसाने को पाती लिस्ं लिखि राधिक ध्याव । राधे हैं जावत है छिन मे वह प्रेम की पाती ले छाती लगावं । आपु मै आपुन ही उरर्भ , सुरभ्ं समुभ्ं , समुभावं । (देव) यह पृर्ण को अयस्था है । (४) मन , उन्मन आदि मनसम्प्रदाय धी पारिभाशिक शब्दावली के माध्यम से परमात्म की प्राप्ति क वर्ण किया गया है ।