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ग्रन्थावली ] [ ६२३
(III) मुद्रा-खेच्ररी मुद्रा । योग की अगभूत एक मुद्रा जिसमे जीभ उलट कर तालू मे लगाई जानी है और दृष्टि त्रिकुटी पर स्थापित की जाती है । (IV) मन मैं कहणा-तुलना कीजिए- वाह्स्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् । स ब्रह्योग युक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते । स्पशन्क्ऱित्वा बहिबहिमाश्च्क्षुश्चैवान्तरे भ्र वो । प्राणायानौ समैकृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ । पत्रोपरमते चित निरुद्ध योगसेवय । यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनितुष्यति । (श्रीमद्भगवद्गीता ५/२१ ,५/२७ ,६/२०) भावुक कवि जन इसी अर्देतावस्ता का वर्णन काव्यात्मक शैलि मे करते आए है- राधिका, कान्ह को ध्यान धरै तब कान्ह हुँ राधिका के गुन गावै । ज्यो अँसुवा बरसे बरसाने को पाती लिखे लिखि राधिका ध्यावै । राधे हुँ जावत है छिन में वह प्रेम की पाती लै छाती लगावै । आपु में आपुन ही उरक्भै , सुरक्भै , बिरुक्भै, समुक्भै, समुक्भाचै । -देव (V) अनहद-देखें टिप्पणी पद स० १५७ । (VI) पच परिजारि भूका-इस पक्त्ति का अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है कि जो योगी काम कोधादि पच विकारो को समान करके शरीर
की आवश्यकताओ से मुक्त हो जाता है वह दव्त रुपी लका पर विजय प्राप्त करता हे।
लंका-ससार अथवा दव्त भाव।'रामचरित मानस' मे गोस्वामी तुलसीदास ने लका'का प्रयोग उस शरीर के लिए किया है, जिसमे 'अह्कार' रूप रावण का निवास है। यथा--- आवश्यकताओ से मुक्त हो जाता है वह व्दोत रूपी लका पर विजय प्रप्त करता है । (VII) लन्का-ससार अथवा द्वौत भाव । 'रामचरित मानस' मे गोस्वामी तुलसीदास ने लका का प्रयोग उस शरीर के लिए किया है, जिसमे 'अहकार' रूप रावण का निवास है । यथा- सखा धरम मय उस रथ जाकें । जीतन्ह कहे न कतहुँ रिपु ताकें । स्पष्ट है कि गोस्वामीजी 'विप्क्षी भाव' से रहित हो जाने को ही शत्रु पर विजय मानते हैं । (VIII) ज्ञान के क्षेत्र मे जो अव्दौत है, योग के क्षेत्र मे वही समाधि है । (IX) इस पद के अन्तर्गत डा० भगवतस्व प मिक्ष की टिप्पणी दृष्टव्य है । यथा- "बाहरी उपकरणो मुद्रा, श्रृगी आदि को तत्व-प्राप्ति का मूलत साधन मानने का खण्डन किया गया है । इनके मूल प्रतीकार्थो को ग्रहण करके इनको आभ्यतर साधनो के रूप मे अपनाने का सदेंश दिया गया है । 'मुद्रा' निम्नलिखित