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ग्रन्थावली ] [ ६२५

  (iii) उन देसि सिधाए - इस वाक्याश मे  ' रहरय भावना' की मार्मिक
  व्यजना है । तुलना कीजिए-
         देखि मानसर रुप सोहावा । हिय हुलस पुरइनि होइ छावा  । (चायसी)
         चकई री ! चलि चरन-सरोवर जहाँ न प्रेम-वियोग     ।
         निसि दिन राम नाम की वर्षा भय रुज नहिं दुख सोग  । (सूरदास)
     (iv)  पाँच जना,-कान , आख,नाक,जिव्हा तथा त्वचा   । (श्बद,रुप,गंघ,
रस तथा स्पर्श )
                        (२०६ )
    जोगिया तन कौ जत्र बजाइ ,
            ज्यू तेरा आवागवन मिटाइ ॥ टेक ॥
      तन करि तांति धर्म करि डाडी,सत की सारि लगाई  ।
      मन  करि निहचल आंसण निहचल,रसनां रस उपजाई ॥
      चित करि बटवा तुचा मेषली, भसमै भसम चढाइ  ।
      तजि पाषंड पांच करि निग्रह,खोजि परम पद राइ   ॥
      हिरदै सींगी ग्यांन गुंणि बांधौ, खोजि निरजन साचा ।
      कहै कबीर निरंजन की गति, जुगति बिनां प्यंड काचा ॥
      शब्दार्थ- जन्त्र=यन्त्र,वाध,याजा । ज्यु=जिससे । आवागवन=जन्म
मृत्यु का चक । तत=परम तत्त्व । सारि=लोहा । निहचल= निश्चल,एकग्र और
हढ ।  प्यड=पिंड ,शरीर । काचा = कच्चा,व्यथ,निष्प्रयोजन ।  वटवा = वटने
वाला । मेपली=मेखला ,करधनी । पाँच  पाँच ज्ञानेन्द्रियॉ - आँख,कान,नाक,
जिव्हा और त्वचा । गुणि=रस्सी ।
      सन्दर्भ-कबीरदास गेरूआ वस्रत्रधारी सधुओ से कहते है कि सच्ची साधना

से हि परमेश्वर की प्राप्ति होती है । अत साधना करो ढोग छोड दो ।

      भावार्थ-कबीरदास कहते है कि हे गेरुआ वस्त्र-वारी सधुओ । तुम इन श्रृगी आदि वाजो को बजाना छोडकर अपने शरीर क ही वाजा बजाओ और उससे अनहदनाद की छ्वनि उत्पन्न करो, जिससे आवागमन क तेरा चक समाप्त हो जाए अर्थात तुभे मोझ की प्राप्ति हो जाए । कदीरदास अब उस बाघ्य-यन्त्र को बजान क उपाय बताते हए कहते है कि तत्ब ज्ञान की तांन बनाओ,ध्र्माचर बनाओ,धेर्माचरण कि डडी बनामो तथा असमे सत्य 
शृगी आदि वाजो को बजाना छोडकर अपने शरीर का ही बाजा बजाओ और उससे
अनहदनाद की ध्वनि उत्पन्न करो,जिससे आवागमन का तेरा चक समाप्त हो जाए 
अर्थात् तुभ्क्ते मोक्ष की प्राप्ति हो जाए । कबीरदास अब उस वाध-यन्त्र को बजाने का
उपाय बताते हूए कहते है कि तत्व ज्ञान कि ताँन बनाओ,धर्माचरण की ढडी
बनाओ तथा उसमे सत्य का लोहा लगाओ,फिर मन और आसन को स्थिर करो
एव जीभ मे मधुर वाणी का रस उत्पन्न करो । अपने मन को वटवा बनाओ,त्वचा 
को ही मेखला समभक्त लो,और इस मिट्टी के शरीर पर काम,क्रोध,मद ,लोभ
और मोह को जलाकर उसकी भस्म चढाग आरम्भ करो । समस्त बाहरी दिखावों
को छोडकर पाँचो इन्द्रियो के ऊपर नियन्त्रन करो और तब परम पद के राजा या
ब्रह्म (हरि)की खोज करो । अपने ह्रुदय को शृगी वाजा बनाओ और ज्ञन की 
करधनी को धारण करो अर्थात् अपने आपको ज्ञानाचरण की सीमाओ मे बाँध दो