पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३१२

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ग्रन्थावली ] [३१२

                 (२१० )

गोन्यन्दे तुम्हारे वन कन्दलि , मेरो मन अहेरा खेलै || बपु वाड़ी अनगु मृग , रचिही रवि मेलेेे || टेक || चित तरउवा पवन वेदा, सहज सूल बांधा | घ्नवांन धनक जोग करम , ग्यांन बांन सांधा || षट चक्र कंवल बेधा , जारि उजारा कीन्हां | कांम क्रोध लोभ मोह , हाकि स्यावज दोन्हां || गगन सण्डल रोकि बारा , तहां दिवस न राती | कहै कबीर छांडि चले , बिछुरे सब साथी || शब्दार्थ - कदलि = कदलि , केला | अहेरा = शकार | वपु = शरीर | वाड़ी = वाटीका | अनग = मृग | तरउवा = माथ लगे रहने वाला , पदाति | खेदा = खदेड़ने वाला , श्वापदो को आखेट - स्थल की ओर भगाकर ले जाने वाला | मूल = मूलाघार चक | घ्वान = घ्यान | घनक = घनुष | स्यावज =सावज , शिकार | सन्दर्भ - कबीर शिकार के साथ रूपक बाँधते हुए कायायोग की साधना का वर्णन करते है | भावार्थ - हे गोविन्द | तुम्हारे इस कदली वन मे अर्थात् जगत् मे मेरा साधक मन रूपी शिकारी शिकार खेल रहा है | इस शरीर रूपी वाटिका मे काम - देव रूपी पशु पर यह साधक मन ताक- ताक कर बाण चलाता है | इस शिकार मे चित्त रूपी तरउवा पवन रूपी खेदा की सहायता से पशुओ को खदेड कर एक स्थान पर बॉध देता है | भावार्थ यह है कि चित्त की चेतना ही वह पदाति है जो इस वन से भली भाँति परिचित है | वह इस साधक मत का मार्ग -दर्शन करता है | प्राणायाम की पवन ने इस विकाररूपी पशुओ को खदेड कर एव एक स्थान पर एकत्र करके उन्हें सहज स्वरुप की जह से बाँध दिया है | इस शिकार के लिए साधक ने ध्यान रूपी घनुष लेकर योग -रूपी कमं से ग्यान रूपी वाण का सधान किया है अर्थात् लक्ष्य - भेद ( विकार -शून्य सहज अवस्था की प्राप्ति ) के प्रति उसको साघा है | इस साधक शिकारी ने कुण्डली जगा कर षटकमल चक्रो को भेदन कर लिया है ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करके प्रकाश कर दिया है | काम क्रोध लोभ मोह रूपी जानवरो का हांका कर दिया गया है अर्थात् उनका शिकार कर दिया गया है | गगनमण्डल को रोककर शिकार का यह वाडा बनाया गया है । वहाँ न दिन है , न रात है | समाघिस्थ होने पर साघक को दिनरात का ज्ञान नही रहता है , न रात है | दूसरी ओर शिकार करते समय दिनरात का विचार नही रह जाता है | कबीर कहते है कि साधक मन अब अद्वंतावस्था को प्राप्त हो गया है ओर उसके समस्त विकार रूपी साथी छूट गए है | इस पद का अर्थ अन्य प्रकार भी किया जा सकता है | इस शिकार मे अर्थात् उस सहज अवस्था की प्राप्ति मे अन्य साधनाओ तथा कर्मो मे रत अन्य साधक विछुड गए है अर्थात् वे उस अवस्था