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ग्रर्न्थावली

दस दल होते है।यह नील वर्ण का होता है।इसका लोक 'स्व' है।इसका करने से ऋमश ड,ढ,ण,त,थ,द,ध,न,प,फ,की व्यनियाँ भक्त होती।इसके सिद्ध लाभ होने से मनुष्य सहार पालन मे समर्थ तथा वचन-रचना मे हो जाता है ,और उसकी जिह्वा पर सरस्वती निवास करती है।

         (  अनाहत चक्र-इसका स्थिति-स्थान ह्रुदय मे होत है। इसमे दल होते है। यह अरुण वर्ण का होता है। इसका लोक 'मह ' है। इ ध्यान करने से एक प्रकार का अन्हद नाद भ्ककृत होता है। वह ऋमश क,ख,घ,ङ,च,छ,ज,झ,ञ,ट,ठ का होता है। इसके सिद्ध लाभ होने मे वचन रचना मे समर्थ ,ईशित्व सिद्धि प्राप्त योगेश्वर ,ज्ञानवान ,इन्द्रियजित्,शक्ति सम्पन्न हो  जाता है। 
           विशुद्ध चक्र-यह चक्र कण्ठ - स्थान मे स्थित होता है। इसके होते है। यह गूम्र वर्न्न का होता है। इसका लोक 'जन'है। इसका ध्यान का ऋमश अ से लेकर अ तक सोलह स्वरो की अनहद ध्वनि भ्क्तकृत होती है। ध्यान सिद्ध होने पर मनुष्य काव्य-रचना मे समर्थ ,ज्ञानवान् ,उत्तम वक्ता चित्त,त्रिलोकदर्शी ,सर्वहितकारी, नीरोग , चिरजीवी , ओर तेजस्वी होता है।
           आज्ञा चक्र- इसका स्थिति - स्थान दोनो भ्रुवो के मध्य है। इस दल होते है। यह श्वेतवर्ण होता है। इसका लोक तप है। इसका ध्यान कह, श का अनहद नाद ऋमश ध्वनित होता है। इसके सिद्ध लाभ से यो वाक्य सिद्धि प्राप्त होती है।    
        
                      (२९९)
            साधन कचू हरि न उतारै, 
                  अनभ ह्वै तओ अर्थ बिचारै॥टेक॥
        बांणी सुंरंग सोधि करि आणौं,आणौं नौ  रग घागा।
        चन्द सूर एकन्तरि कीया,सोवत बहु दिन लागा॥
        पच पदार्थ छोड़ि समानां हीरै मोती जड़िया॥
        कोटि बरस लूं काचू सीया,सुर नर घघै पड़िया॥
        निस बासुर जे सोवै नांही,ता नरि काल न खाई॥
        कहै कबीर गुर परसादै , सहजै रह्म सभाई  ॥
      शब्दार्थ-कघू=कचुकी,अनभै=अभय,भय रहित।
     सन्धर्भ -कबीर कहते है कि साधना ओर गुर की कृपा के द्वरा स्वरूप की प्राप्ति होती है।
        भावार्थ-भगवान से यही प्रार्थना है कि वह साधन - चाम शरीर रूपी को आत्मा से यिलग न करे। जो जन्म-मरण के भय से मुक्त है, वही मेरे के वास्तविक अर्थ को सभक्त रगत है,(क्योकि प्रभु की प्रप्ति अनेक साधना के फलस्वरूप प्राप्त होती है तथा साधना के लिए 'साधन धाम