पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३१८

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ग्रन्थावलि ]

८) 

भाव साभ्य के लिए देखे-

   विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन । 
   रसवर्ज रसोड्प्यस्य परं हष्ट्टा निवर्तते ।
                                     (श्रीमदभगवद्गीता २/५६)
                  ( २१३ )

धीरौ मेरे मनवां तोहि धरि टांगौं ,

     तै तौ कियौ मेरे खसम सूं षांगौं ॥ टेक ॥

प्रम की जेवरिया तेरे गलि बांधू,तहां लै जांउ , तहां मेरौ माघौ ॥ काया नगरी पैसि किया मैं बासा,हरि रस छाडि विषै रसि माता ॥ कहै कबीर तन मन का ओरा,भाव भगति हरि सूं गठजोरा ॥

 शब्दार्थ-खागौं=खोट,बुराई । जेवरिया=रस्सी। माता=मत्त,लिप्त ।

गठ-जोरा=ग्रथि-बघन,विवाह ।

    संदर्भ- साधक कबीर ज्ञान की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं।
    भावार्थ-कबीर कह्ते हैं कि रे मेरे विषयी मन, तू जरा धैर्य धारण कर अथवा तू जरा ठहर जा।

मैं तुझको अभी पकड कर टाँगता हूँ अर्थात् दण्डित करता हूँ। 'धरि टागों' का अर्थ 'उलटा टाँगना' भी हो सकता है। तब इसका अर्थ इस प्रकार होगा कि मैं तुझे विषयाभिमुख न रहने देकर आत्माभिमुख करता हूँ । तुमने मेरे पति भगवान के साथ खोटाई (वुराई) की है।

       मैं तेरे गले में भगवद्प्रेम की रस्सी डालूगा और बाँधकर तुझे वहाँ ले जाऊँगा जहाँ मेरे माधव हैं ।
    मन उत्तर देता है कि मैंने इस कायारुपी नगरी में प्रविष्ट होकर भक्ति रस को छोड दिया था, और मैं विषय-रस में लिप्त होकर अपने आपको भूल गया था । पर अब मैने तन-मन भगवान को अर्पित कर दिए हैं और मेरी भाव भक्ति का गठबंधन भगवान से होगया है ।
  अलँकार-(१) छेकानुप्रास-धीरौ धरि,भाव भगति,मेरो माधौ ।
         (२) रुपक-प्रेम की जेबरिया,काया नगरी हरिरस ।
        (३)पदमैत्री-तन मन ।
  विशेष-(१) मन का मानवीकरण ।
       (२)खसम-सत सम्प्रदाय का प्रतीक है ।दामपत्य भाव के आवरण में भक्ति-भावना की व्यजना है । यह सूफियों का प्रभाव है ।
       (३) भाव साम्य देखे-
            अवलौं नसानी,अब न नसैहौं ।
         राम-कृपा भव-निसा सिरानी,जागे पुनि न दसेहौ ।
       परवस जानि हँस्यौ इन इन्द्रिन,निज बस ह्वै न हँसैहौं ।