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६३६] [कबीर

                         (२१५)
    रांम नांम रंग लागौ, कुरंग न होई।
           हरि रंग सौ रंग और न कोई॥ टक॥
    और सबै रंग इहि रग थै छूटै, हरि रंग  लागा कदे न खूटै॥
    कहै कबीर मेरे रंग रांम राई,और पतंग रग उडि जाई।
    शब्दार्थ-कुरग=फीका,भद्दा। कदे=कभी। खूटै=छूटता है। पतग=
पतगी,कच्चा।
    सन्दर्भ--कबीरदास राम-प्रेम की महिमा का प्रतिपादन करते है।
    भावार्थ--राम नाम के प्रति प्रेम हो जाने पर अन्य किसी के प्रति आसक्ति  
उत्पन्न नहीं होती है। राम प्रेम एक ऐसा रंग है जो कभी हल्का नहीं होता है।
भगवान के प्रेम के समान अन्य किसी का प्रेम नहीं  है। हरि-प्रेम हो जाने पर अन्य
नमस्त वस्तुओं के प्रति आकपंण समाप्त हो जाता है। हरि प्रेम का रंग एक बार लगने
पर कभी भी कहीं छूटता है। कबीर कहते है कि भगवान राम का प्रेम रूपी रंग
मेरे ऊपर चढ गया है। अन्य समस्त रंग तो अस्थायी है। वे सब उड़ जाते है।
अभिप्रेत यह है कि राम के प्रति प्रेम स्थायी रहता है। इसी से कबीरदास ने राम 
से प्रेम कर लिया है।
      अलंकार---(१) नभग पद यमक---रग कुरंग।
              (२) अनन्वय - हरि रग सौ    कोई।
              (३) अनुप्रास---अन्तिम दो चरण।
              (४) विशपोक्ति की व्यजना---कदे न खूटै।
              (५) रुपक---हरी रग।
     कबीरा प्रेम कूल ढरै, हमारे राम बिना न सरे ।
     वांघि लै घोरा सींचि लै क्यारी ज्यू तू पेड़ भरै ॥ टेक ॥
     काया बाडी मोहै माली, व्हल करै दिन राती ।
     कबहू न सोवै काज सबारे, पांणतिहारी माती ॥
     सेझ फूवा स्वंड़ अति सीतल, कबहूं फुवा वनहीं रे ।
     भाग हमारे हरि रखवाले, कोई उजाड़ नहीं रे ॥
     गुर बीज जमाया कि रखि न पाया, मन की आपदा खोई।
     औरै स्यावढ फरै प्यारिसा, सिला करं सब कोई॥
     जौ घरि आया तौ सब ल्याया,सबहो काज सवारचा|
     कहे कबीर लुनहू रे मतो, पकित भया मैं हारचा ॥