पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३२२

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ग्रन्थावली ]

निपया । कुवाव=बुरी हवा, कुववयु ।स्यावढ=सवढ,रवमी,सधक तात्पर्य । खारीसा==कलिस,एकाधिकर।सिला = सिलोच्छ। फसल काट्ने के बाद खेत मे पडे हुए दाने, इच्छ्व्र्ती ।और= निरला । स्वाति=शाति ।सहजै।

  सन्दर्भ --कबीरदास भ्गवद्प्रम का वर्णन करते हैं ।

भावार्थ- कबीर के राम- प्रेम के किनारे दल गए हैं । अब राम के बिना उनका काम नही चलता हैं । रे जीव, तू प्रेम जल को प्रवाहित करने योग्य नाली बना ले अथवा अपने मान -मानस को प्रेम जल के प्रवाह-योग्य माध्यम बना ले और अपनी जीवन रुपी क्यारी मे इस प्रेम जल को भर ले जिससे तेरा मन रुपी व्र्श्र किसी प्रकार रसमीयुत हो जाए । यह शरीर ही वटिका हैं और साधक जीव ही माली हैं । जो इस प्रेम वटिका कि रख्वाली करता हैं । यह माली दिन रात वटिका की सेवा करता हैं । यह रख्वाला कभी नहीं सोता हैं और अपने काम को सब तरह से ठीक करता हैं । अथवा अपने काम के प्रति सदैव सजग रहता हैं और उसकी कमी उपेक्षा नहीं करता हैं, जबकि जल की नालियों को इधर- उधर मोडकर कयारियों मे पानि देने वाली उसकी इन्द्र्या अत्थन्त मस्त हैं और वे इस प्रेम - जल का सम्यक़ उपयोग नहीं करती हैं । वे अपने रंग मे मस्त हैं और इस प्रेम जल का बहुत बडा भाग व्यर्थ ही नष्ट होता रहता हैं । इस खेती की सीन्चाई के लिए सहज- स्वरुप का अत्यन्त शीतल और मधुर जल वाला कुँ आ भी हैं । वहाँ पर कभी भी कुवायु नही चलती हे- अर्थार्त वहाँ लू आँधी आदि का भय नहीं हैं- सदैव शान्ति का साम्राज्य रहता हैं । (सहज आनन्द स्वरुप का नित्य लक्षण ही यह हैं)।

    इस प्रेम की वाडी के रखवाले स्वयं भगवान हैं । यही हमारा परम सौभाग्य हैं। इसी से कोई भी इस वाडी को नष्ट नहीं कर पाता हैं ।
      गुरु ने इस वाडी मे प्रेम का बीज बोया हैं । साधक मन ने उस खेत को निष्पादित किया अथवा उससे उत्पन्न खेती के फलों को प्राप्त किया हैं और मन के समस्त सश्य आदि नष्ट हो गए हैं । खेती पर पूर्ण अधिकार करने वाला साधक निराला ही होता हैं- वह कुछ भिन्न प्रकार का ही होता हैं । सामान्य साधक तो खेत मे पडे हुए अनाज के दानो को ही - सामान्य सिद्वियो को ही - प्राप्त करके सन्तुष्ट हो जाते हैं । सम्पूर्ण फसल को एकत्र करके लाता हैं, सब काम ठीक करता हैं और उसी का घर आना सार्थक हैं । अभिप्राय यह हैं, कि जो पूरी तरह से भगवान मे लवलीन हो जाता हैं, वही सहज स्वरुप को प्राप्त होता हैं और उसी की साधना सफल मानी जाती हैं । कबिर कहते हैं, कि हे सन्तों सुनो, मैं तो प्रेम-साधना का उपदेश देते - देते थक कर हार गया हूँ -मैं प्रेम का उप्देश देते-देते थक गया हूँ । संसार के लोगो पर कुछ भी असर नही हुआ हैं। अन्त् मेैं हार मान कर बैठ गया हूँ । 
     अलन्कार- (१)  साग रुपक - प्रथम चार पत्तिया । 
             (२)  रुपकातिश्योत्ति - माली पेड ,वेज ।