पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३२८

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ग्रन्थावली ] [६४३

     (११)इस पद का समभाव देखिए-
        छाडि मन हरि-विमुखन कौ सग ।
        जिनके सग कुबुघि उपजत है, परत भजन से भग ।
        कहा होत पय पान कराये,विष नाहिं तजत भुजंग ।
        कागहि कहा कपूर चुगाये, स्वान न्हवाये गंग ।
        खर को कहा अरगजा-लेपन, मरकट भूषन अंग ।
        गज को कहा न्हवाये सरिता, बहुरि घरै खेहि छंग ।
        पाहन पतित वान नहिं वेधत, रोतौ करत निषग ।
        'सूरदास' खल कारी कामरि, चढत न दूजौ रंग । - सूरदास 
                    (२२२)
      अब न बसू इहिं गांइ गुसाई,
            तेरे नेवगी खरे सयांने हो राम ॥ टके ॥
      नगंर एक तहां जीव धरम हता, बसै जु पंच किसानां ।
      नैनू निकट श्रवनू रसनू, इंद्री कहा न मानै हो रामं ॥
      गांइ कु ठाकुर खेत कु नेपै, काइथ खरच न पारै ।
      जोरि जेवरी खेति पसारै, सब मिलि मोकौं मारै हो राम ॥
      खोटौ महतौ बिकट बलाही, सिर कसदम का पारै ।
      बुरौ दिवांन दादि नहिं लागै, इस बांधै इक मारै हो रामं ॥
      धरमराइ जब लेखा मांग्या, बाकी निकसी भारी ।
      पांच किसानां भाजि गये हैं, जीव घर बांध्यौ पारी हो रामं ॥
      कहै कबीर सुनहु रे संतौ, हरि भजि बांधौ भेरा ।
      अबकी बेर बकसि बदे कौं, सब खत करौ नवेरा ॥