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ग्रन्थावली] [ ६४५

गढ लिया है । गर्दन नापने का अर्थ होता है- प्राण लेने की तैयारी । 'शरीर नापना' भी इसी अर्थ मे प्रयुक्त किया गया है । भाव यह है कि शरीर क्षीण होते देख्रकर काल उसको नष्ट करने की योजना बनाता रहता है अर्थात् ज्यो-ज्यो शरीर क्षीण होता जाता है । त्यो-त्यो अन्त काल निकट आता जाता है ।

    (iv)विषय के वन्धन जर्जर होने के कारण यघपि सहज ही तोडे जा सकते है तथापि वे शरीर   के लिए बहुत कष्टकारी होते है और जीवात्मा उनमे फँसा रहता है । यही विरोधाभास है।
    (v)शरीरान्त होने पर स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है । अतएव समस्त इन्द्रियाँ नष्ट हो चुकी होती है । कर्म का हिसाब जीवात्मा को देना पडता है । काम-मनस को अपने कर्मफल को पुर करना पडता है । पिछ्ले कृत्यो के परिणाम सामने आने पर काम-मनस को अपार कष्ट होता है,क्योकि उसकी इच्छाशत्कि बनी रहती है काम-मनस की यह विवशता ही प्रेतयोनी, नरक-निवास आदि नामो से अभिहित की जाती है ।
     (vi)समभाव के लिए सूरदास का यह पद देखे-
          अवकी  माधव  मोहि  उधारो ।
          मगन  हो  भाव  अम्बुनिधि  में  कृपासिंधु  मुररी ।
          नीर  अति   गम्भीर माया  लोभ  लहरि  तरंग  ।
          लिए  जात  अगाध  जल मे  गहे   ग्राह  अनंत । 
          मीन इन्द्रिय  अतिहि  काटत कोट अध सिर भार  ।                                                    
          पग न इत-तन  धरन  पावत  उरभिक् मोह सेवार ।
          काम  कोध  समेत तृष्णा  पवन  अति भत्कभोर ।
          नहिं चितवन  देत  तिय  सुत  नाम  नौका ओर ।
          थक्यो  बीच  बेहाल  चिह्ल  चुनहु   करुना  मूल ।
          स्याम  भुज  गहि  काढि  डारहु  'सूर' ब्रज के  फूल ।   
       अन्य  भक्तो ने भी इस जन्म की  दारुण व्यथा का वर्णन करते हुए प्रभु से उध्र्दार करने की कामना प्रकट की है ।
                         (२२३)

ता भै थै मन लागौ रांम तोही,

               करौ कृपा जिनि बिसरौ मोही ॥ टक ।

जननीं जठर सह्या दुख भारी, सो सक्या नहीं गई हमारी ॥ दिन दिन तन छीजै जरा जनावै, केस गहें काल बिरदग बजावै । कहै कबीर करुणांय आगै, तुम्हारी क्रिया बिना यहु बिपति न भागै ।

       शब्दार्थ- भै= भय । जठर= उदर, पेट । छीजै= नष्ट हो जाता है ।जरा= वृध्दावस्था ।

विरदग=मृदग ।

   सन्दर्भ- कबीर भगवान से उध्दार कि प्रार्थना करते है ।