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६४६ ] [ कबौर
भावाथॆ -हे प्रभु राम | संसार अथवा जन्म-मरण के भय के कारण यह मेरा मन तुम्हारे प्रति अनुरत्त्क हो रहा है | माता के गर्भ मे रहने पर मैंने बहुत दुःख सहा था| उस कष्ट का रम्ररण मुभ्के अभी तक है और उसका भय मेरे हॄदय मे समा गया है | दिन प्रति दिन यह शरीर क्षीण हो रहा है और मुभ्के वृद्धावस्था के आगमन का ज्ञान कराता है | काल मेरे वाल पकडकर मृदग वजा रहा है अथाॆत् मृत्यु मेरे सिर पर सवार है और मेरे अन्त ॱ् मय को निकट आता देखकर आनन्द मना रही है। कबीर कहते है कि अब मैं करूणामय भगवान की शरण मे हूँ। हे भगवान। तुम्हारी कृपा के बिना इस संसार का दुःख दूर नही हो सकता है । अलंकार-पुनरूत्त्किप्रकाश - दिन दिन । विशेष - कबीर इस पद मे एक सच्चे भक्त के रूप मे दिखाई देते हैं । दैन्य भक्तो का बडा बल है । वे सदा से प्रभु की कृपा पर अवलम्वित रहते आए हैं । यथा- (।) तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नही मिटै विपति कबहूँ । (॥) तुलसिदास बस होइ तबहि जब प्रेरक प्रभु वरजै । तथा-
सूरदास की सवै अबिधा, पूरि करौ नन्दलाल ।
(२२४) कब देखूॱ मेरे राम सनेहो, जा बिन दुख पावै मेरी देही ॥ टेक ॥ हूँ तेरा पथ निहारूॱस्वांमी,कब रमि लहुगे अंतरजांमीं। जेसै जल बिन मीन तलपै, ऐसै हरि बिन मेरा जियरा कलपै ॥ निस दिऩ हरि बिन नींद न आबै, दरस पियासो रांम क्यू सचुपावै । कहै कबीर अब बिलव न फोजै, अपनौ जांनि मोहि दरसन दोजै ॥